सोमवार, 5 दिसंबर 2011

सदाबहार की बहार

(टीम अभिव्यक्ति)

मडागास्कर मूल की यह फूलदार झाड़ी भारत में कितनी लोकप्रिय है, इसका पता इसी बात से चल जाता है कि लगभग हर भारतीय भाषा में इसको अलग नाम दिया गया है- उड़िया में अपंस्कांति, तमिल में सदाकाडु मल्लिकइ, तेलुगु में बिल्लागैन्नेस्र्, पंजाबी में रतनजोत, बांग्ला में नयनतारा या गुलफिरंगी, मराठी में सदाफूली और मलयालम में उषामालारि। इसके श्वेत तथा बैंगनी आभावाले छोटे गुच्छों से सजे सुंदर लघुवृक्ष भारत की किसी भी उष्ण जगह की शोभा बढ़ाते हुए सालों साल बारहों महीने (सदाबहार) देखे जा सकते हैं। इसके अंडाकार पत्ते डालियों पर एक-दूसरे के विपरीत लगते हैं और झाड़ी की बढ़वार इतनी साफ़ सुथरी और सलीकेदार होती है कि झाड़ियों को काटने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ती।

वैसे तो यह झाड़ी इतनी जानदार है कि बिना देखभाल के भी फलती-फूलती रहती है, किंतु रेशेदार दुमुट मिट्टी में थोड़ी-सी कंपोस्ट खाद मिलने पर आकर्षक फूलों से लदी-फदी सदाबहार का सौंदर्य किसी के भी हृदय को प्रफुल्लित कर सकता है। इसके फल बहुत से बीजों से भरे हुए गोलाकार होते हैं। इसकी पत्तियों, जड़ तथा डंठलों से निकलनेवाला दूध विषैला होता है।

पौधों के सामने भी समस्याएँ होती हैं। पेड़-पौधे चाहते हैं कि उनके फल तो जानवर खाएँ, ताकि उनके बीज दूर-दूर तक जा सकें, किंतु यथासंभव उनकी पत्तियाँ तथा जड़ न खाएँ। इसलिए अनेक वृक्षों के फल तो खाद्य होते हैं, किंतु पत्तियाँ, जड़ आदि कड़वे या ज़हरीले। सदाबहार ने इस समस्या का समाधान अपने फलों को खाद्य बनाकर तथा पत्तियों व जड़ों को कडुवा तथा विषाक्त बनाकर किया है। ऐसे विशेष गुण पौधों में विशेष क्षारीय (एल्कैलायड) रसायनों द्वारा आते हैं।

क्षारों की दुनिया भी बड़ी अजीब है और वैज्ञानिक इनका अध्ययन कर रहे हैं। पेड़-पौधों में पाए जानेवाले क्षारों में अनेक विचित्र गुण होते हैं, कुछ विषैले होते हैं, तो कुछ अफीम सरीखे नशीले, कुछ हृद-शामक, हृद-उत्तेजक, श्वास उत्तेजक, रुधिर-वाहिका संकुचक, स्थानीय संवेदनाहारक, पेशी विश्रांतक और कुछ 'साइकेडैलिक' होते हैं। मज़े की बात यह है कि जो क्षारीय रसायन सामान्य मात्रा में विष, नशा या साइकेडैलिक-भ्रम पैदा करते हैं, वे ही अल्पमात्रा में दवा का काम करते हैं।

सर्पगंधा में रक्तचाप-शमन गुण होता है, जिसके कारण विश्व में इसकी माँग बढ़ी और भारत ने इसका इतना निर्यात किया इसके लुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया, इसलिए इसका निर्यात बंद करना पड़ा। निर्यात बंद हो जाने पर विकसित देशों में अन्य पौधों में रक्तचाप शमन की खोज बढ़ाई, और पता चला कि 'सदाबहार' झाड़ी में यह क्षार अच्छी मात्रा में होता है। इसलिए अब यूरोप भारत चीन और अमेरिका के अनेक देशों में इस पौधे की खेती होने लगी है। अनेक देशों में इसे खाँसी, गले की ख़राश और फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है। सबसे रोचक बात यह है कि इसे मधुमेह के उपचार में भी उपयोगी पाया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सदाबहार में दर्जनों क्षार ऐसे हैं जो रक्त में शकर की मात्रा को नियंत्रित रखते है।

जब शोध हुआ तो 'सदाबहार' के अनेक गुणों का पता चला - सदाबहार पौधा बारूद - जैसे विस्फोटक पदार्थों को पचाकर उन्हें निर्मल कर देता है। यह कोरी वैज्ञानिक जिज्ञासा भर शांत नहीं करता, वरन व्यवहार में विस्फोटक-भंडारों वाली लाखों एकड़ ज़मीन को सुरक्षित एवं उपयोगी बना रहा है। भारत में ही 'केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान' द्वारा की गई खोजों से पता चला है कि 'सदाबहार' की पत्तियों में 'विनिकरस्टीन' नामक क्षारीय पदार्थ भी होता है जो कैंसर, विशेषकर रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया) में बहुत उपयोगी होता है। आज यह विषाक्त पौधा संजीवनी बूटी का काम कर रहा है।

बगीचों की बात करें तो १९८० तक यह फूलोंवाली क्यारियों के लिए सबसे लोकप्रिय पौधा बन चुका था, लेकिन इसके रंगों की संख्या एक ही थी- गुलाबी। १९८८ में इसके दो नए रंग ग्रेप कूलर (बैंगनी आभा वाला गुलाबी जिसके बीच की आँख गहरी गुलाबी थी) और पिपरमिंट कूलर (सफेद पंखुरियाँ, लाल आँख) विकसित किए गए।

१९९१ में रॉन पार्कर की कुछ नई प्रजातियाँ बाज़ार में आईं। इनमें से प्रिटी इन व्हाइट और पैरासॉल को आल अमेरिका सेलेक्शन पुरस्कार मिला। इन्हें पैन अमेरिका सीड कंपनी द्वारा उगाया और बेचा गया। इसी वर्ष कैलिफोर्निया में वॉलर जेनेटिक्स ने पार्कर ब्रीडिंग प्रोगराम की ट्रॉपिकाना शृंखला को बाज़ार में उतारा। इन सदाबहार प्रजातियों के फूलों में नए रंग तो थे ही, आकार भी बड़ा था और पंखुरियाँ एक दूसरे पर चढ़ी हुई थीं। १९९३ में पार्कर जर्मप्लाज्म ने पैसिफ़का नाम से कुछ नए रंग प्रस्तुत किए। जिसमें पहली बार सदाबहार को लाल रंग दिया गया। इसके बाद तो सदाबहार के रंगों की झड़ी लग गई और आज बाज़ार में लगभग हर रंग के सदाबहार पौधों की भरमार है।

यह फूल सुंदर तो है ही आसानी से हर मौसम में उगता है, हर रंग में खिलता है और इसके गुणों का भी कोई जवाब नहीं, शायद यही सब देखकर नेशनल गार्डेन ब्यूरो ने सन २००२ को इयर आफ़ विंका के लिए चुना। विंका या विंकारोज़ा सदाबहार का अंग्रेज़ी नाम है।

शहरी प्रदूषण से बढ़ता है रक्तचाप

जर्मनी के शोधकर्ताओं ने पाँच हज़ार लोगों पर अध्ययन किया और पाया कि लंबे समय तक प्रदूषण झेलने वाले लोगों का रक्तचाप ऊंचा हुआ.शोधकर्ताओं के इस दल का कहना है कि प्रदूषण को कम करने की कोशिश की जानी चाहिए.उच्च रक्तचाप से रक्तवाहिकाएं सख्त हो जाती हैं जिससे दिल के दौरे या पक्षाघात का ख़तरा बढ़ जाता है. डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने आबादी पर चल रहे एक अध्ययन का डेटा इस्तेमाल किया और देखा कि 2000 से लेकर 2003 के बीच वायु प्रदूषण का रक्तचाप पर क्या असर पड़ा. इससे पहले हुए अध्ययन बता चुके हैं कि वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ने से रक्तचाप भी बढ़ सकता है लेकिन अभी तक ये नहीं पता था कि लंबे समय तक प्रदूषण का सामना करने का क्या असर होता है.हमारे शोध के परिणाम बताते हैं कि जिन इलाक़ों में वायु प्रदूषण अधिक है वहां रहने वालों में उच्च रक्तचाप अधिक पाया गया.

डॉ बारबरा हॉफ़मैन, डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय के शोध दल की प्रमुख

डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय में पर्यावरण और नैदानिक महामारी विज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ बारबरा हॉफ़मैन ने कहा, "हमारे शोध के परिणाम बताते हैं कि जिन इलाक़ों में वायु प्रदूषण अधिक है वहां रहने वालों में उच्च रक्तचाप अधिक पाया गया".

उन्होने कहा, "ये ज़रूरी है कि जहां तक हो सके लंबे समय तक लोगों को अधिक वायु प्रदूषण से बचाएं".

अब यह दल इस बात की खोज करेगा कि क्या लंबे समय तक अधिक प्रदूषण में रहने से रक्तवाहिकाएं जल्दी सख़्त हो जाती हैं या नहीं.

ब्रिटिश हार्ट फ़ाउंडेशन में काम करने वाली एक वरिष्ठ नर्स जूडी ओ सलिवेन ने कहती हैं, "हम जानते हैं कि वायु प्रदूषण और दिल और रक्तवाहिकाओं की बीमारियों के बीच संबंध है लेकिन हम अभी यह पूरी तरह नहीं जानते कि यह संबंध क्या है".

उन्होने कहा, "यह अध्ययन एक रोचक सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि वायु प्रदूषण से रक्तचाप बढ़ सकता है. इस दिशा में काफ़ी शोध हो रहे हैं. इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि लोगों को प्रदूषण के ख़तरों से बचाने के लिए क्या किया जाए".

भारत में जल प्रदूषण - एक नए दृष्टिकोण की आवश्यक्ता

जल प्रदूषण भारत में सबसे गंभीर पर्यावरण संबंधी खतरों मे से एक बनकर उभरा है। इसके सबसे बड़े स्रोत शहरीय सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट हैं जो बिना शोदित किया हुए नदियों में प्रवाहित हो रहे हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद शहरों में उत्पन्न कुल अपशिष्ट जल का केवल 10 प्रतिशत हिस्सा ही शोधित किया जा रहा है और बाकी ऐसे ही नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है।

जल के स्रोतों जैसे झील और नदी-नालों में ज़हरीले पदार्थों के प्रवेश से इनमे उपलब्ध पानी की गुणवत्ता में गिरावट आ जाती है जिस से जलीय पारिस्थिकी गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इस के कारण भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाता है। इन सब का इन जल स्रोतों के निकट रहने वाले सभी प्राणियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। भारत सरकार को जल प्रबंधन के मोर्चे पर तत्काल कदम उठाने की आवश्यक्ता है और ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए त्रुटिपूर्ण नीतियों को संशोधित करने की आवश्यकता है।

जल प्रदूषण मानव अस्तित्व की एक वास्तविकता है। कृषि और औद्योगिक उत्पादन जैसी गतिविधियाँ जैविक अपशिष्ट के अलावा जल प्रदूषण भी उत्पन्न करती हैं। भारत में हर वर्ष लगभग 5 ,000 करोड़ लीटर का जल अपशिष्ट उत्पन्न होता है जिसमे औद्योगिक और घरेलू, दोनों ही स्रोतों से उत्पन्न अपशिष्ट जल शामिल हैं। अगर ग्रामीण क्षेत्रों के आंकड़ों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या और बड़ी हो जाएगी। औद्योगिक अपशिष्ट में पाए जाने वाले हानिकारक तत्वों में नमक, विभिन्न रसायन, ग्रीज़, तेल, पेंट, लोहा, कैडमीयम, सीसा, आर्सेनिक, जस्ता, टिन, इत्यादि शामिल हैं। कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि कुछ औद्योगिक संगठन रेडियो-एक्टिव पदार्थों को भी जल के स्रोतों में प्रवाहित कर देते हैं जो जल शोधन संयंत्रों पर व्यय होने वाले धन को बचाने के लिए नियम कानूनों को ताक पर रख देते हैं।

भारत सरकार के सभी जल प्रदूषण नियंत्रण संबंधी प्रयास विफल रहे हैं क्योंकि शोधन प्रणालियों की स्थापना के लिए अधिक पूँजी निवेश और परिचालन के लिए भी अधिक आती है। शोधन संयंत्रों की उच्च लागत न केवल किसानो बल्कि फैक्टरी मालिकों के लिए भी सिरदर्द का कारण है क्योंकि इस से उनके द्वारा तैयार किये जा रहे उत्पादों की लागत बढ़ जाती है। किसी भी कारखाने में जल शोधन संयंत्र की स्थापना और उसके संचालन की लागत उस कारखाने के कुल खर्चों के 20 प्रतिशत तक हो सकती है। इसलिए हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं जिसमे सरकारी मानदंडों के होने के बावजूद प्रदूषित जल बिना शोधन प्रक्रिया से गुज़रे हुए नदियों में बहाया जा रहा है।

दूसरी ओर भारत सरकार के जल प्रदूषण नियंत्रण पर प्रति वर्ष लाखों रुपए खर्च कर रही है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत सरकार ने देश में विभिन्न जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं, जैसे गंगा कार्य योजना और यमुना कार्य योजना पर अब तक लगभग 20,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। लेकिन अभी तक कोई भी सकारात्मक परिणाम दिखाई नहीं दिए हैं। सरकार को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जल स्रोतों को प्रदूषण मुक्त करने के सभी उपाय विफल हो जायेंगे जब तक बिना शोधन के औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट जल को उनमे प्रवाहित होने से नहीं रोका जाएगा।

इसलिए सरकार को जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर पैसा खर्च करने के बजाय कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में जल शोधन संयंत्रों की स्थापना और संचालन को बढ़ावा देना चाहिए। जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर खर्च किये जाने वाले धन को उन उद्योगों को सब्सिडी देने और उन पर कड़ी निगरानी रखने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो अपनी गतिविधियों से अपशिष्ट जल उत्पन्न करते हैं। नैनोटेकनोलोजी जैसे क्षेत्रों में अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि कम लागत में जल शोधन संयंत्र स्थापित किये जा सकें। यहाँ भी सरकार का दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि शोधित जल को नदियों में प्रवाहित करने के बजाय कृषि जैसी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जाए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस गृह पर उपलब्ध कुल पानी का मात्र 0.3 प्रतिशत हिस्सा ही मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों के उपभोग के लिए ठीक है। शेष 99.7 प्रतिशत जल या तो समुद्र के पानी के रूप में मौजूद है या फिर पहाड़ों पर हिमनद के रूप में। इसलिए जल प्रदूषण के मुद्दे की और अधिक उपेक्षा करना तृतीय विश्व युद्ध को आमंत्रित करने जैसा होगा जो जल संसाधनों के नियंत्रण के लिए लड़ा जाएगा।

अम्बरीष श्रीवास्तव


प्रदूषण फैलाने वाली 27 इकाइयां चिह्नित

उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की सहायक गोमती नदी में प्रदूषण फैलाने वाली 27 इकाइयों को चिह्नित किया है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों में से 7 चीनी मिलें हैं, जबकि 5 यीस्ट इकाइयां हैं। शेष छोटी औद्योगिक इकाइयां हैं, जिसमें कृषि आधारित कागज कंपनी शामिल है।
बहरहाल, राज्य सरकार ने दावा किया है कि यह सभी प्रदूषणकारी इकाइयों ने कहा है कि वे प्रदूषण नियंत्रण मानकों को पूरा करने के लिए शोधन संयंत्र लगाएंगी।
गोमती नदी पीलीभीत के टिहरी इलाके से निकलती है, जो उत्तर प्रदेश की प्रमुख नदी है। यह लखनऊ, लखीमपुर खीरी और जौनपुर सहित 15 शहरों से होकर गुजरती है या इसके क्षेत्र में आते हैं। राज्य में इसकी कुल लंबाई 900 किलोमीटर है और बिहार की सीमा पर गाजीपुर जिले में यह गंगा से मिल जाती है।
मायावती सरकार ने हाल ही में राज्य विधानसभा में कहा था कि प्रदूषण करने वाली सभी चीनी मिलें शोधन संयंत्र स्थापित करेंगी और पेराई सत्र में अपने कचरे का निस्तारण उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) से संपर्क के बाद ही करेंगी। उत्तर प्रदेश जल निगम (यूपीजेएन) ने लखनऊ में 2 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किए हैं, जिनकी क्षमता 56 एमएलडी और 345 एमएलडी है, जिसके जरिये घरेलू जलापूर्ति होती है। सुल्तानपुर जिले मेंं 5 एमएलडी का ऑक्सिडेशन पौंड है और 9 एमएलडी एसटीपी भी प्रस्तावित है।
यीस्ट इकाइयां औद्योगिक कचरे से बायोगैस और बायोकंपोस्ट का निर्माण करती है, जो अपना प्रदूषण स्तर शून्य कर रही हैं। छोटी इकाइयां भी शोधन संयंत्र लगा रही हैं।

प्रदूषण

प्रदूषण ने किया है परेशान ,
खोले हैं ये फैक्ट्ररियों की खान....
गर्मी से हैं अब सब बेहाल ,
मत पूछो अब किसी का हाल......
जब मार्च के महीने में है यह हाल ,
तो मई-जून आदमी हो जायेगा लाल..
आगे और पता नहीं क्या होगा ?
आदमी का कुछ पता नहीं होगा....
गाड़ी मोटर कार जो चलाते,
जाने कितना प्रदूषण कर जाते....
क्यों न करें हम साइकिल का इस्तेमाल ?
तब शायद सुधरे थोडा हाल ....
पड़ रही है गर्मी बहुत इस बार,
पहुँच गया है परा ४८ के पार....

धर्मेन्द्र कुमार
कक्षा :८
अपना घर

प्रदूषण : एक गंभीर समस्या

प्रस्तावना : विज्ञान के इस युग में मानव को जहां कुछ वरदान मिले है, वहां कुछ अभिशाप भी मिले हैं। प्रदूषण एक ऐसा अभिशाप हैं जो विज्ञान की कोख में से जन्मा हैं और जिसे सहने के लिए अधिकांश जनता मजबूर हैं।

प्रदूषण का अर्थ : प्रदूषण का अर्थ है -प्राकृतिक संतुलन में दोष पैदा होना! न शुद्ध वायु मिलना, न शुद्ध जल मिलना, न शुद्ध खाद्य मिलना, न शांत वातावरण मिलना !

प्रदूषण कई प्रकार का होता है! प्रमुख प्रदूषण हैं - वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण !

वायु-प्रदूषण : महानगरों में यह प्रदूषण अधिक फैला है। वहां चौबीसों घंटे कल-कारखानों का धुआं, मोटर-वाहनों का काला धुआं इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में सांस लेना दूभर हो गया है। मुंबई की महिलाएं धोए हुए वस्त्र छत से उतारने जाती है तो उन पर काले-काले कण जमे हुए पाती है। ये कण सांस के साथ मनुष्य के फेफड़ों में चले जाते हैं और असाध्य रोगों को जन्म देते हैं! यह समस्या वहां अधिक होती हैं जहां सघन आबादी होती है, वृक्षों का अभाव होता है और वातावरण तंग होता है।

जल-प्रदूषण : कल-कारखानों का दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है। बाढ़ के समय तो कारखानों का दुर्गंधित जल सब नाली-नालों में घुल मिल जाता है। इससे अनेक बीमारियां पैदा होती है।

Nibandh In Hindi
ND
ध्वनि-प्रदूषण : मनुष्य को रहने के लिए शांत वातावरण चाहिए। परन्तु आजकल कल-कारखानों का शोर, यातायात का शोर, मोटर-गाड़ियों की चिल्ल-पों, लाउड स्पीकरों की कर्णभेदक ध्वनि ने बहरेपन और तनाव को जन्म दिया है।

प्रदूषणों के दुष्परिणाम: उपर्युक्त प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को खतरा पैदा हो गया है। खुली हवा में लम्बी सांस लेने तक को तरस गया है आदमी। गंदे जल के कारण कई बीमारियां फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य के शरीर में पहुंचकर घातक बीमारियां पैदा करती हैं। भोपाल गैस कारखाने से रिसी गैस के कारण हजारों लोग मर गए, कितने ही अपंग हो गए। पर्यावरण-प्रदूषण के कारण न समय पर वर्षा आती है, न सर्दी-गर्मी का चक्र ठीक चलता है। सुखा, बाढ़, ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है।

Nibandh In Hindi
ND
प्रदूषण के कारण : प्रदूषण को बढ़ाने में कल-कारखाने, वैज्ञानिक साधनों का अधिक उपयोग, फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी हैं। प्राकृतिक संतुलन का बिगड़ना भी मुख्य कारण है। वृक्षों को अंधा-धुंध काटने से मौसम का चक्र बिगड़ा है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण बढ़ा है।

सुधार के उपाय : विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से बचने के लिए चाहिए कि अधिक से अधिक पेड़ लगाए जाएं, हरियाली की मात्रा अधिक हो। सड़कों के किनारे घने वृक्ष हों। आबादी वाले क्षेत्र खुले हों, हवादार हों, हरियाली से ओतप्रोत हों। कल-कारखानों को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचना चाहिए।

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

How can air pollution hurt health?

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Air pollution can affect our health in many ways with both short-term and long-term effects. Different groups of individuals are affected by air pollution in different ways. Some individuals are much more sensitive to pollutants than are others. Young children and elderly people often suffer more from the effects of air pollution. People with health problems such as asthma, heart and lung disease may also suffer more when the air is polluted. The extent to which an individual is harmed by air pollution usually depends on the total exposure to the damaging chemicals, i.e., the duration of exposure and the concentration of the chemicals must be taken into account.

Examples of short-term effects include irritation to the eyes, nose and throat, and upper respiratory infections such as bronchitis and pneumonia. Other symptoms can include headaches, nausea, and allergic reactions. Short-term air pollution can aggravate the medical conditions of individuals with asthma and emphysema. In the great "Smog Disaster" in London in 1952, four thousand people died in a few days due to the high concentrations of pollution.

Long-term health effects can include chronic respiratory disease, lung cancer, heart disease, and even damage to the brain, nerves, liver, or kidneys. Continual exposure to air pollution affects the lungs of growing children and may aggravate or complicate medical conditions in the elderly. It is estimated that half a million people die prematurely every year in the United States as a result of smoking cigarettes.

Research into the health effects of air pollution is ongoing. Medical conditions arising from air pollution can be very expensive. Healthcare costs, lost productivity in the workplace, and human welfare impacts cost billions of dollars each year.

Additional information on the health effects of air pollution is available from the Natural Resources Defense Council. A short article on the health effects of ozone (a major component of smog) is available from the B.A.A.Q.M.D.

गुरुवार, 9 जून 2011

Tips for saving Energy

LIGHTING
One of the best energy-saving devices is the light switch. Turn off lights when not required. As for as possible use task lighting, which focuses light where it’s needed. A reading lamp, for example, lights only reading material rather than the whole room. Dirty tube lights and bulbs reflect less light and can absorb 50 percent of the light; dust your tube lights and lamps regularly. Florescent tube lights and CFLs convert electricity to visible light up to 5 times more efficiently than ordinary bulbs and thus save about 70% of electricity for the same lighting levels. Ninety percent of the energy consumed by an ordinary bulb (incandescent lamp) is given off as heat rather than visible light. Replace your electricity-guzzling ordinary bulbs (incandescent lamps) with more efficient types. Compact fluorescent lamps (CFLs) use up to 75 percent less electricity than incandescent lamps. A 15-watt compact fluorescent bulb produces the same amount of light as a 60-watt incandescent bulb.

REFRIGERATORS
Make sure that refrigerator is kept away from all sources of heat, including direct sunlight, radiators and appliances such as the oven, and cooking range. When it’s dark, place a lit flashlight inside the refrigerator and close the door. If light around the door is seen, the seals need to be replaced. Refrigerator motors and compressors generate heat, so allow enough space for continuous airflow around refrigerator. If the heat can’t escape, the refrigerator’s cooling system will work harder and use more energy. A full refrigerator is a fine thing, but be sure to allow adequate air circulation inside. Think about what you need before opening refrigerator door. You’ll reduce the amount of time the door remains open. Allow hot and warm foods to cool and cover them well before putting them in refrigerator. Refrigerator will use less energy and condensation will reduced. When dust builds up on refrigerator’s condenser coils, the motor works harder and uses more electricity. Clean the coils regularly to make sure that air can circulate freely.

ROOM AIR CONDITIONERS
Use ceiling or table fan as first line of defense against summer heat. Ceiling fans, for instance, cost about 30 paise an hour to operate – much less than air conditioners (Rs. 10.00 per hour) You can reduce air-conditioning energy use by as much as 40 percent by shading your home’s windows and walls. Plant, trees, and shrubs to keep the day’s hottest sun off your house One will use 3 to 5 percent less energy for each degree air conditioner is set above 20O C(77OF) to provide the most comfort at the least cost. A good air conditioner will cool and dehumidify room in about 30 minutes, so use a timer and leave the unit off for some time. Keep doors to air-conditioned rooms closed as often as possible. Clean the air-conditioner filter every month. A dirty air filter reduces airflow and may damage the unit. Clean filters enable the unit to cool down quickly and use less energy.
If room air conditioner is older and needs repair, it’s likely to be very inefficient. It may work out cheaper on life cycle costing to buy a new energy-efficient air conditioner.

WATER HEATERS
To help reduce heat loss, always insulate hot water pipes, especially where they run through unheated areas. Never insulate plastic pipes. By reducing the temperature setting of water heater from 60 degrees to 50 degrees C, one could save over 18 percent of the energy used at the higher setting.

MICROWAVE OVENS & ELECTRIC KETTLES
Microwaves save energy by reducing cooking times. In fact, one can save up to 50 percent on your cooking energy costs by using a microwave oven instead of regular oven especially for small quantities of food. Remember, microwaves cook food from the outside edge toward the center of the dish, so if you’re cooking more than on item, place larger and thicker items on the outside. Use an electric kettle to heat water. It’s more energy efficient than using an electric cook top element. When buying a new electric kettle, choose one that has an automatic shutoff button and a heat-resistant handle. It takes more energy to heat a dirty kettle. Regularly clean your electric kettle by combining boiling water and vinegar to remove mineral deposits.

COMPUTERS
Turn off your home office equipment when not in use. A computer that runs 24 hours a day, for instance, uses – more power than an energy-efficient refrigerator. If your computer must be left on, turn off the monitor; this device alone uses more than half the system’s energy Setting computers, monitors, and copiers to use sleep-mode when not in use helps cut energy costs by approximately 40% Battery charges, such as those for laptops, cell phones and digital cameras, draw power whenever they are plugged in and are very inefficient. Pull the plug and save. Screen savers save computer screens, not energy. Start-ups and shutdowns do not use any extra energy, nor are they hard on your computer components. In fact, shutting computers down when you are finished using them actually reduces system wear – and saves energy.

प्र·ृति ·ी भी सुनो कारा...


ज़ल, जंगल और ज़मीन, इन तीन तत्वों ·े बिना प्र·ृति अधूरी है। विश्व में सबसे समृद्ध देश वही हुए हैं, जहां यह तीनों तत्व प्रचुर मात्रा में हों। नैचरल एनवायरनमैंट’, जिसे हम आम बोलचाल ·ी भाषा में एनवायरनमंट या पर्यावरण ·हते हैं। आज यह गंभीर चिंतन ·ा विषय बना हुआ है। पर्यावरण असल में है क्या? हमारी धरती और इस·े आसपास ··ुछ हिस्सों ·ो पर्यावरण में शामिल ·िया जाता है। इसमें सि$र्फ मानव ही नहीं, बल्·ि जीव-जंतु और पेड़-पौधे भी शामिल ·िए गए हैं। यहां त· ·ि निर्जीव वस्तुओं ·ो भी पर्यावरण ·ा हिस्सा माना गया है। ·ह स·ते हैं, धरती पर आप जिस ·िसी चीज़ ·ो देखते और महसूस ·रते हैं, वह पर्यावरण ·ा हिस्सा है। इसमें मानव, जीव-जंतु, पहाड़, चट्टान जैसी चीज़ों ·े अलावा हवा, पानी, ऊर्जा आदि ·ो भी शामिल ·िया जाता है। हमारा देश जंगल, वन्य जीवों ·े लिए प्रसिद्ध है। पूरी दुनिया में बड़े ही विचित्र तथा आ·र्ष· वन्य जीव पाए जाते हैं। हमारे देश में भी वन्य जीवों ·ी विभिन्न और विचित्र प्रजातियां पाई जाती हैं। इन सभी वन्य जीवों ·े विषय में ज्ञान प्राप्त ·रना ·ेवल ·ौतूहल ·ी दृष्टि से ही आवश्य· नहीं है, वरन यह ·$फी मनोरंज· भी है।

मानव समाज और वन्य जीवों ·ा पारस्परि· संबंध क्या है? यदि वन्य जीव भूमंडल पर न रहें, तो पर्यावरण पर तथा मनुष्य ·े आर्थि· वि·ास पर क्या प्रभाव पड़ेगा? तेज़ी से बढ़ती हुई आबादी ·ी प्रति·्रिया वन्य जीवों पर क्या हो स·ती है आदि प्रश्न गहन चिंतन और अध्ययन ·े हैं। इसलिए भारत ·े वन व वन्य जीवों ·े बारे में थोड़ी जान·ारी आवश्य· है, ता·ि लोग भलीभांति समझ स·ें ·ि वन्य जीवों ·ा महत्व क्या है और वे पर्यावरण च·्र में ·िस प्र·ार मनुष्य ·ा साथ देते हैं।

साथ ही यह जानना भी आवश्य· है ·ि सृष्टि-रचना च·्र में पर्यावरण ·ा क्या महत्व है। वैज्ञानि· दृष्टि से ·ैसे समझा जाए, जिससे हमें पता चले ·ि आ$िखर ·िसी प्रजाति ·े लुप्त हो जाने से मानव समाज और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ स·ता है, क्यों·ि आ$िखर हम भी ए· प्रजाति ही हैं।

आज हमें सबसे ज़्यादा ज़रूरत है पर्यावरण सं··े मुद्दे पर आम जनता ·ो जागरू· ·रने ·ी। जीव-जंतुओं व जंगल ·ा विषय है तो बड़ा जटिल पर है उतना ही रोच·। इसे समझने ·े लिए सबसे पहले $खुद पर पड़ रहे पर्यावरण ·े प्रभाव ·ो जानना महत्वपूर्ण है। पर्यावरण समस्या आज ए· गंभीर रूप धारण ·र रही है। तो आइए हम अपने आप ·ो इससे जोड़ें। इस·े लिए आप··हीं जाने या ·िसी रैली में भाग लेने ·ी ज़रूरत नहीं, ·ेवल अपने आस-पड़ोस ·े पर्यावरण ·ा अपने घर जैसा $ख्याल रखें। इस·े लिए आप·ो बस ·ुछ ही बातों ·$ख्याल रखना है

हम क्या ·र स·ते हैं?

आज पर्यावरण दिवस पर आप लोगों ·ो इस·े लिए ·ुछ ·रने ·े प्रण लेने होंगे। ऐसा नहीं ·ि साल में ए· बार यह दिन मनाया और पूरा साल आप वातावरण ·ा सत्यानाश ·रते रहें। यानी अपनी आदतों में साल दर साल थोड़ा-थोड़ा सुधार ·रते रहें। हमारे छोटे-छोटे ·ाम सालभर चलते रहेंगे तो पर्यावरण ठी· रहेगा। पर्यावरण ·ी हालत ·ैसी है और अपने पर्यावरण ·े लिए हम क्या ·र स·ते हैं इन्हीं छोटे-छोटे तरीों पर $गौर ·रते हैं।

रिसाइ·ल : घर ·े उपयोग में आने वाले ·चरे में ध्यान दें, क्या-क्या है। इसमें आप··ई तरह ·ी चीज़ें दिखाई देंगी। ·ागज़, प्लास्टि· और ·ांच और रोज़ाना ·िचन से नि·लने वाला सब्ज़ी-भाजी ··चरा भी।

·ोशिश ·रें ·ि इनमें से जो ·चरा ·बाड़ी वाले ·ो बेचा जा स·े वह उसे दे दें। वहां से पुराने आयटम रिसाइ·ल सैंटर त· पहुंचते हैं और फिर इन्हीं चीज़ों से नई चीज़ें बन·र आप त· पहुंच जाती हैं। उपयोग में आई प्लास्टि· ·ी रिसाइ·लिंग से नया सामान बन जाता है। ·ागज़, ·ांच और धातु से बनी चीज़ें भी रिसाय·ल हो जाती हैं। ·चरे ·े डिब्बे में फैं· देने पर देर से अपघटित होने वाला ·चरा ज़मीन, पानी और हवा ·ो बिगाड़ता रहता है।

याद रहे सब्जि़यों और खाने-पीने ·ी चीज़ें जल्दी मिट्टी में मिल जाती हैं पर प्लास्टि· और धातु ·ी चीज़ों ·ो धरती में मिलने ·े लिए ·ई साल लगते हैं।

यह ·ाम है तो छोटा-सा पर इससे आप पर्यावरण ·े लि ए असल में बहुत बड़ा ·ार्य ·र रहे होंगे।

री-ड्यूज़

ग्लोबल वार्मिंग इस समय ए· बड़ी चिंता है। पृथ्वी पर जिन चीज़ों ·ा उपयोग हम ·र रहे हैं उनसे तापमान में ·्रमश: वृद्धि हो रही है। तापमान ·े बढऩे ·ी मुख्य वजह है फैक्टिरियों से नि·लने वाला धुआं। हम उसे तो रो· नहीं स·ते पर अपनी ज़रूरतों ·ो थोड़ा बहुत बदल स·ते हैं। अपने घरों में दिन ·े समय बत्तियां ·म से ·म जलाएं। अगर ·िसी ·मरे में अंधेरा रहता है, तो खिड़·ी खोल देने पर उस ·मरे में रोशनी हो स·ती है।

घर ·े सारे बिजली से चलने वाले उप·रणों ·ो घर से बाहर जाते हुए मेन स्विच से बंद ·रें। इस तरह बिजली ·े बिल में भी थोड़ी ·टौती होगी और ज़्यादा बिजली बनाने ·े लिए ·ोयला भी नहीं जलाना पड़ेगा। पृथ्वी ·ा तापमान भी ·ुछ ·म पड़ेगा। फ्रिज ·े पानी ·े बजाय मट··ा ठंडा पानी ज़्यादा बेहतर है। मट··े आसपास ए· गीला ·पड़ा लपेट·र रखेंगे तो पानी ·े लिए फ्रिज बार-बार नहीं खोलना होगा और बिजली बचेगी। - रीतू ·लसी

यह भी ·रें...

> · पौधा लगाओ और उसे बड़ा ·रने ·ी जि़म्मेदारी भी लो।

> बिजली ·े बिल में ·टौती ·रने वाले उपाय सोचो।

> पुराने बल्ब पर जमी धूल पोंछने पर ·मरे में दो ·े बजाय ए· ही बल्ब से ·ाम चल जाएगा।

> गर्म पानी से नहाने ·ी आदत बदलोगे तो भी चल स·ता है।

> · सूची बना·र देखो ·ि इस महीने तुम ·िन आदतों ·ो बदल·र पर्यावरण ·े लिए ·ाम ·िया।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

चिल्का पर गहराती चिंता...


संदीपसिंह सिसोदिया
एशिया में खारे पानी की सबसे बड़ी झील 'चिल्का' सदियों से इंसान और पशु-पक्षियों को सहारा देती आई है। पर उड़ीसा में स्थित इस विशाल झील पर अब चिंता के बादल छाने लगे हैं। मानव द्वारा अतिक्रमण के कारण प्रदूषण की मार झेलती इस झील के पारिस्थिति तंत्र को ग्लोबल वॉर्मिंग से भी खतरा है। लगातार सिकुड़ते जलक्षेत्र और पानी में घुलते प्रदूषण से इस झील की नैसर्गिक विशेषताओं का लोप होने लगा है। ऐसा लगता है कि लाखों देशी और प्रवासी पक्षियों के इस विश्वविख्यात रैन-बसेरे को मानो किसी की नजर लग गई है...
घटती आमद: जनवरी में हुई सालाना पक्षी गणना से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर तो यही कहा जा सकता है। इस साल 18-19 जनवरी को हुई सालाना बर्ड सेंसस के दौरान यहाँ पक्षियों की संख्या में 13 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। इसके मुकाबले पिछले साल यहाँ 924578 पक्षी आए थे जबकि इस साल यहाँ 804452 पक्षियों की आमद हुई।
चिल्का में स्थित नलबाना बर्ड सेंचुरी तथा उसके आस-पास के क्षेत्र में 18-19 जनवरी (दो दिनों) तक चली इस गणना में लगभग 90 लोगों ने भाग लिया जिनमें वन विभाग के अधिकारी और पक्षी विशेषज्ञ शामिल थे। इस साल होने वाली पक्षी गणना में पक्षियों की कुल 169 प्रजातियाँ चिंह्नित की गईं जिनमें से 103 प्रवासी पक्षियों की थी। हालाँकि पिछले साल 180 प्रजातियों की पहचान की गई थी, जिसमें से 114 प्रवासी पक्षियों की थी।
अधिकारी नहीं है चिंतित: प्रवासी पक्षियों की घटती तादाद पर राज्य वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि दिसंबर में हुई बरसात के कारण इस साल झील में पानी का स्तर बढ़ा हुआ है जिस वजह से शायद प्रवासी पक्षियों की कुछ प्रजातियाँ यहाँ नहीं रुकी। इस साल आई कमी को साधारण मानते हुए अधिकारी कहते हैं कि पिछले 5 सालों का रिकॉर्ड दिखाता है कि पक्षियों की तादाद 7 लाख से 9 लाख रहती है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि इस बार भी इन पक्षियों की संख्या में कोई खास चिंताजनक गिरावट नहीं है।
कुछ स्थानीय पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि अभी भी यूरोप में जाड़े का मौसम है तो उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में कुछ और पक्षी यहाँ आएँ। यहाँ आने वाले प्रवासी पक्षियों की प्रमुख प्रजातियाँ है, राजहंस (फ्लेमिंगों) हरी और स्लेटी स्टॉर्क, चौड़ी चोंच वाली बतखें तथा स्पूनबिल की कई प्रजातियाँ, इसके अलावा कई देशज प्रजातियाँ भी यहाँ डेरा डालती हैं।
दूर देश से आते मेहमान: साइबेरिया, ईरान, इराक, अफगानिस्तान और हिमालय से हर साल यहाँ औसतन 10 लाख तक पक्षियों का जमावड़ा लगता है। उत्तरी गोलार्ध की जमा देने वाली सर्दियों से बचने के लिए हर साल अक्टूबर से मार्च तक प्रवासी पक्षी लाखों की तादाद में यहाँ जमा होते हैं। इन पक्षियों की इतनी बड़ी संख्या चिल्का को भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवासी पक्षियों की सबसे बड़ी शरणस्थली बनाती है।
स्वर्ग पर संकट: गौरतलब है कि पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ उथले पानी में रहना पसंद करती है क्योंकि यहाँ पाए जाने वाले सरकंडे, जलीय झाड़ियाँ और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध केंकड़े, घोंघे, मछलियाँ जैसे शिकार इनके प्रजनन के लिए अत्यंत मुफीद होते हैं। पानी का स्तर बढ़ने से पक्षियों की कई प्रजातियाँ मनमाफिक जगह की तलाश में किसी और जगह का रुख कर लेती है। इसके अलावा चिल्का के किनारों पर बढ़ती मानव गतिविधियों के कारण भी इन पक्षियों पर आफत आ रही है। संरक्षित क्षेत्र में शिकार के मामले तो बढ़ें ही है, अतिक्रमण से भी इन पक्षियों के घरोंदे उजड़ रहे हैं।

जैव विविधता से लबरेज: बंगाल की खाड़ी से सटे भारत के पूर्वी राज्य उड़ीसा के पूर्वी तट पर 1100 वर्ग किमी. के क्षेत्रफल में फैली चिल्का या चिलिका झील पुरी, खुर्दा और गंजाम जिलों के अंतर्गत आती है। यह झील दुनियाभर के पर्यटकों के बीच आकर्षण का केंद्र है। यहाँ मछली पकड़ने, नौका विहार तथा बर्ड वॉचिंग के लिए पर्यटकों का तांता लगा रहता है। यह झील इतनी खूबसूरत है कि इसे हनीमूनर्स पैराडाइज भी कहा जाता है।
इसकी एक बड़ी विशेषता है कि वर्षाकाल में इस झील का पानी अपेक्षाकृत मीठा हो जाता है पर बाकि समय खारा होता है। इस झील में बड़कुदा, हनीमून, कालीजय, कंतपंथ, कृष्णप्रसादर, नलबाण, नुवापाड़ा तथा सानकुद जैसे अनेक छोटे-छोटे द्वीप हैं। महानदी तथा कई धाराओं द्वारा सिंचित इस झील को समुद्री ज्वार पानी से भर देते हैं। खारे-मीठे, उथले और गहरे पानी के संयोजन से यहाँ जलीय प्राणियों और पक्षियों की भरमार है। इस झील की यही खूबियाँ इसे जैव विविधता से भरपूर बनाती हैं।
चिल्का झील जैव विविधता से कितनी समृद्ध है इसका एक उदाहरण है यहाँ पाई जाने वाली दुर्लभ इरावदी प्रजाति की डॉल्फिन मछली, इसके अलावा भी यहाँ ऐसी अनेक प्रजाति की मछलियाँ मिलती है जिन पर न केवल यहाँ आने वाले पक्षी बल्कि आस-पास के गाँवो के लगभग 2 लाख मछुआरे भी निर्भर हैं।
चिल्का पर चिंतन: चिल्का पर चिंता कोई नई नहीं है, मीठे और नमकीन पानी के मिश्रण से बनी इस झील को वर्ष 1993 में खतरे में पड़ी आर्द्रभूमियों की सूची में शामिल कर लिया गया था जिसके बाद इस झील को सहेजने की कई सफल कोशिशों के बाद वर्ष 2001 में इसे फिर खतरे की सूची से हटा लिया गया था। पर अब फिर से यह चिंता सताने लगी है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और बढ़ते मानवीय दबाव की वजह से शायद आने वाले कुछ सालों में एक बार फिर यह झील खतरे की सूची में न आ जाए।

रविवार, 2 जनवरी 2011

पर्यावरण एवं जल प्रदूषण


अनीता अग्रवाल
“पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर पहेली है एवं इसके साथ हमारे जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है, वैज्ञानिकों ने यदि समय रहते इसके परिहार के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए तो आने वाले समय में मनु-पुत्र सदा के लिए काले के गाल में समा जाएंगे।” प्रसिद्ध प्रकृतिविद् श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का यह कथन आज की गंभीर रूप धारण करती हुई पर्यावरण प्रदूषण रूपी समस्या के सम्बन्ध में नितांत सत्य है।
आज सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से चिन्तित है एवं आज ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता जब पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या पर चर्चा नहीं होती है। अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अनुसार, “प्रदूषण, जल, वायु या भूमि के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों के होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन है जिससे मनुष्य प्रक्रियाओं या सांस्कृतिक तत्वों तथा प्राकृतिक संसाधनों को हानि हो या हानि होने की संभावना हो।”

पर्यावरण के मुख्य आधार वायु, भूमि, वनस्पति जहां प्रदूषित होकर मानव-जीवन के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं, वहीं जल-प्रदूषण मानव अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गया है। महाकवि कालिदास ने जहाँ अभिज्ञान शाकुन्तलम् व मेघदूत जैसी विश्व-प्रसिद्ध रचनाओं में मन पर पर्यावरण का प्रभाव दर्शाया है, वहीं लेमार्क एवं डार्विन जैसे वैज्ञानिकों ने पर्यावरण को जीवों के विकास में महत्वपूर्ण कारक माना है। चाणक्य जैसा नीतिज्ञ भी साम्राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छन्दता पर निर्भर मानता है। इन सबके बावजूद भी स्वार्थी मानव ने अपने तुच्छ उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विश्व के सम्मुख एक विकट समस्या जल-प्रदूषण के रूप में उत्पन्न कर दी।

जल का महत्व


मानव शरीर का दो-तिहाई भाग जल से ही बना है। हमारे रक्त का 40 प्रतिशत भाग जल होने से ही परिसंचरण द्वारा पोषक अंगों तक पहुँचाने तथा उपापचय के फलस्वरूप उत्पन्न विसर्जन योग्य पदार्थों के निष्कासन में सहायक सिद्ध होता है। जल की इस महत्ता को समझते हुए ही 500 ईस्वी पूर्व पिण्डरोज नामक ग्रीक वैज्ञानिक ने जल को सभी वस्तुओं में सर्वोत्तम कहा।

जैसा लिखा भी गया है-

“जल ही है रस रूप में, जड़ चेतन सब देह,
रोम-रोम में यह रमा, मूल सागर की नेह।”

जल प्रदूषण की समस्या


मानव का अस्तित्व जल से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है फिर भी मानव अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जल को विषाक्त करता जा रहा है। यही नहीं, विश्व के कुल जल का मात्र 0.6 प्रतिशत भाग ही पीने योग्य है क्योंकि हमारी पृथ्वी के कुल जल का 97 प्रतिशत भाग समुद्रों में पाया जाता है जो लवणीय व खारा है अतः उपयोग के अनुकूल नहीं है। शेष 3 प्रतिशत का अधिकांश भाग भूमिगत एवं वाष्प के रूप में है एवं केवल 0.6 प्रतिशत जल ही जल-स्रोतों के रूप में मानव को उपलब्ध है, जिसका वह सुगमतापूर्वक प्रयोग कर सकता है। जल प्रदूषण में मानव ने सर्वाधिक दुरूपयोग समुद्र व नदियों का किया है। दोनों की विशालता के कारण इन पर “सोल्यूशन टू पोल्यूशन इस डाइल्यूशन” की अव्यावहारिक उक्ति का सहारा लेकर इनको कूड़े-कचरे को ठिकाने लगाने का स्थान बना लिया। जल प्रदूषण के मुख्य घटकों में औद्योगिक-रासायनिक व विषैले पदार्ष, तैलीय प्रदूषण, थर्मल प्रदूषण, रेडियो एक्टिव, कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण प्रयोग, कूड़ा-कचरा आदि प्रमुख हैं। जल प्रदूषण के फलस्वरूप आज पानी में सोडियम, लोहे, मैग्निशियम, क्रोमेट, अमोनिया, सायनाइड, फिनाल, नैप्थैलिन, पारे एवं अनावश्यक फ्लोराइड की मात्रा निरंतर बढ़ती जा रही है एवं आक्सीजन की मात्रा में निरंतर कमी होती जा रही है।

मानव ने जैविक मल से छुटकारा पाने का सबसे सरल व सुविधाजनक तरीका इसे नदियों व समुद्रों में छोड़ा जाना खोजा, जो एक अत्यंत घातक कदम है। सामान्यतः एक वर्ष में 10 लाख व्यक्तियों पर 5 लाख टन सीवेज उत्पन्न होता है जिसका अधिकांश भाग समुद्र व नदियों में पहुंचता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 1 लाख से ज्यादा आबादी वाले 142 शहरों में से केवल 8 शहर हैं जिनमें सीवेज को ठिकाने लगाने की पूर्ण व्यवस्था है, 62 ऐसे शहर है जहाँ थोड़ी-बहुत व्यवस्था है एवं 72 ऐसे शहर हैं जहाँ इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। जल में मानव मल-मूत्र आने का आशय है डिकम्पोजिटर बैक्टीरिया के लिए अतिरिक्त भोजन का आगमन, जो पानी की आक्सीजन का बहुत बड़ा भाग प्रयोग में लेते हैं। जिससे जलीय जंतुओं व पादपों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

औद्योगिकरण के कारण कल-कारखानों के जहरीले रासायनिक व्यर्थ के पदार्थों ने भी नदियों की जीवनदायिनी शक्ति को प्रायः समाप्त कर दिया है। आज भारत की लगभग 70 प्रतिशत नदियां पर्यावरण के दृष्टिकोण के संकट के घेरे में हैं। इनमें भारत की प्रमुख नदियां गंगा, यमुना, दामोदर, सोन, कावेरी, कृष्णा, नर्मदा, साही आदि शामिल है। आज भारतीयों की मुख्य धार्मिक नदी गंगा का 23 प्रतिशत भाग प्रदूषित हो चुका है। सन् 1984 में यमुना नदी में मात्र दिल्ली शहर से प्रतिदिन 3,20,000 किली. मलमूत्र व गंदा पानी मिलता था। वाराणसी के विश्वप्रसिद्ध दशाश्वमेघ घाट से बहने वाली गंगा का जल-जलीय प्रदूषण के कारण अपेय व हानिकारक हो गया है। दामोदर नदी में 40 लाख गैलन विषैला पानी कल-कारखानों द्वारा छोड़ा जाता है। मद्रास शहर से लगभग 2 करोड़ गैलन गंदगी बहकर नदियों को अशुद्ध करती है। श्रीनगर का 51000 किली. गंदा पानी सीधा झेलम में मिलता है। जल में प्रवाहित की जाने वाली इस गंदगी के कारण जहां सन् 1940 में एक लीटर जल में 2.5 घन सेमी. आक्सीजन पाई जाती थी वह घटकर अब मात्र 0.1 घन सेमी. रह गई है। यही नहीं, भारत के 2600 शहरी क्षेत्रों में से केवल 2000 क्षेत्रों में एवं 5,76,000 ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 64,000 क्षेत्रों में सामान्य से कुछ जल पीने हेतु उपलब्ध है।

जल प्रदूषण का दूष्प्रभाव जलीय पादपों व जीव जंतुओं पर भी तीव्र गती से दृष्टिगत होने लगा है एवं कई प्रजातियां लुप्तप्रायः हो गई हैं. जल प्रदूषण से विश्व भर में समुद्र से प्राप्त की जाने वाली 10 करोड़ टन मछलियों का अस्तित्व खतरे में होता जा रहा है। एक अनुसान के अनुसार मात्र पिछले 20 वर्षों में समुद्री जीवों की संख्या में 40 प्रतिशत की कमी आई है।

समुद्री जल प्रदूषण का एक मुख्य कारण तैलीय प्रदूषण भी है। विश्व में लगभग डेढ़ टन तेल का यातायात प्रति वर्ष होता है। जिसके कारण जल में तैलीय प्रदूषण फैलता है। तैलीय प्रदूषण के परिणामस्वरूप जीवों की तीव्रगति से मृत्यु होती है। क्योंकि तेल हल्का होने के कारण जल पर फैल जाता है। जिससे जंतु जल व वायु के बीच आदान-प्रदान नहीं कर पाता है व नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार कच्चा तेल काला होने से सूर्य की रोशनी पानी तक नहीं पहुंच पाती है, फलतः शैवाल व अन्य पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं कर पाते हैं। जल में तैलीय प्रदूषण कितना फैल गया है इसके लिए अमेरिका की काहोगा नदी का उदाहरण दिया जा सकता है जिसमें एक बार अत्यधिक प्रदूषण के कारण आग लग गई थी, इसी कारण उसे ज्वलनशील नदी की संज्ञा दी जाने लगी। भारतीय संदर्भ में मुंगेर के पास गंगा में तेल शोधक कारखाने के कारण आग लग गई थी जिससे बहुत बड़ा नुकसान हुआ था।

आज जल प्रदूषण के दुष्परिणामों की विश्व झलक देखें तो जापान का उदाहरण सर्वोत्तम रहेगा जहां के टोकियो के शहर के आस-पास प्रदूषण इतना अधिक हो गया कि उस जल के फोटोग्राफ विकसित किया जा सकता है। वहां के योकाईची नगर में काफी बड़ी संख्या में लोग श्वांस रोग से पीड़ित हो चुके हैं। जीत्सू नदी के किनारे होंमू द्वीप के निवासियों में एक नई बीमारी उत्पन्न हो गई है जिसमें लोगों की अस्थियां इतनी भंगुर हो गई हैं कि थोड़े-से छू देने से ही वे टूट जाती हैं।

आज धरती के स्वर्ग कश्मीर की डल झील, नैनीताल की नैनीझील, माउण्ट आबू की नक्की झील के सौन्दर्य में प्रदूषण के कारण निरन्तर गिरावट आ रही है। यदि डल झील में प्रदूषण की यही गति रही तो आने वाले 5 वर्षों में यह नौका विहार एवं मछली पकड़ने के अनुकूल भी नहीं रह पाएगी।

निष्कर्ष


जल प्रदूषण पर नियंत्रण करने हेतु घरों से निकलने वाले वाहित मल व मलिन जल को संयंत्रों में पूर्ण उपचार करके ही नदी या समुद्र में छोड़ना, जलाशयों के आस-पास गंदगी कूड़े-करकट डालने पर रोक, खेती में विषैले रासायनिक पदार्थों के अनावश्यक प्रयोग पर रोक, रासायनिक उद्योगों के अवशिष्ट जल व पदार्थों का जल स्रोतों में डालने पर रोक लगानी होगी।

यदि विश्व में जल प्रदूषण की यही दर कायम रही तो आने वाले युग में पीने का पानी व खेतों में दिया जाने वाला पानी विषाक्त एवं प्रदूषित होगा। फलतः उत्पादन कम होगा, भुखमरी, बीमारियां, महामारियां फैलेंगी तथा जिन समुद्रों व नदियों से अमृत एवं रत्न निकलते थे वहां से विष निकलेगा।