रविवार, 22 अप्रैल 2012

विकास के लिए पेड़ काटने पड़ते हैं, लेकिन पेड़ लगाने भी तो चाहिए। पेड़ बड़े पैमाने पर लगाए जाएं, यही आज की जरूरत है।

मौसम की अनियमितता


समस्त मानव जाति धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार है। सामाजिक सरोकारों को सुविधाभोगी जीवन शैली में पीछे छोड़ दिया है। हम विकास के सोपान जैसे-जैसे चढ़ रहे हैं, पृथ्वी पर नए-नए खतरे उत्पन्न हो रहे हैं। प्रतिदिन घटती हरियाली व बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण नई समस्याओं को जन्म दे रहा है। इस कारण प्रकृति का मौसम चक्र भी अनियमित हो गया है। किसी भी ऋतु का कोई निश्चित समय नहीं रह गया है। हर वर्ष तापमान में हो रही वृद्धि से बारिश की मात्रा कम हो रही है। इस कारण भू-जलस्तर में भारी कमी आई है। प्रत्येक मनुष्य को एकजुट होकर पृथ्वी को बचाने के उपाय करने होंगे। इसमें प्रशासन, सामाजिक संगठन, स्कूल, कॉलेज सहित सभी को भागीदारी निभानी होगी।
बचाने के उपाय
  • बाज़ार जाते समय साथ में कपड़े का थैला, जूट का थैला या बास्केट ले जानी चाहिए।
  • हम प्रत्येक सप्ताह कितने पॉलीथिन थैलों का इस्तेमाल करते हैं, इसका हिसाब रखें और इस संख्या को कम से कम आधा करने का लक्ष्य बनाएं।
  • यदि पॉलीथिन थैले के इस्तेमाल के अलावा कोई और विकल्प न बचे तो एक सामान को एक पॉलीथिन थैले में रखने के स्थान पर कई सामान एक ही थैले में रखने की कोशिश करें।
  • घर पर पॉलीथिन थैलों का काफ़ी उपयोग किया जाता है। जैसे लंच पैक करना, कपड़े रखना या कोई अन्य घरेलू सामान रखना, इनमें से कुछ को कम करने का प्रयास करे।
  • पॉलीथिन के थैलों से जितना बच सकते हैं बचें। पॉलीथिन के थैलों को एक बार इस्तेमाल कर फेंकने के स्थान पर उनका पुन: प्रयोग करने का प्रयास करे।
  • स्थानीय अखबारों में चिट्ठिया लिखकर, स्कूल में पोस्टर के द्वारा या प्रजेंटेशन से इस मसले पर जागरुकता फैलाने का काम करें।
  • बच्चों को प्रोत्साहित करें कि वे अपने पुराने खिलौने तथा गेम्स ऐसे छोटे बच्चों को दे दें जो कि इसका उपयोग कर सकते हैं। एक तरह से यह रिसाइक्लिंग प्रक्रिया ही होगी क्योंकि एक तो आपके घर की सामग्री नष्ट होने से बच जाएगी, दूसरे जिसे वह मिलेगी उसे बाहर से पर्यावरण के लिए नुकसानदायक सामग्री ख़रीदनी नहीं पड़ेगी। इससे बच्चों में त्याग की भावना भी बलवती होगी। केवल बच्चों ही नहीं बड़े लोग भी अपने कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान तथा पुस्तकें भेंट कर सकते हैं।
पर्यावरण को सबसे अधिक आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार ने ही चोट पहुँचाई है। मनुष्यों की सुविधा के लिए बनाई गयी पॉलीथीन सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है। भूमि की उर्वरक क्षमता को यह नष्ट न होने के कारण खत्म कर रही है। इनको जलाने से निकलने वाला धुआँ ओजोन परत को भी नुकसान पहुँचाता है जो ग्लोबल वार्मिग का बड़ा कारण है। देश में प्रतिवर्ष लाखों पशु-पक्षी पॉलीथीन के कचरे से मर रहे हैं। इससे लोगों में कई प्रकार की बीमारियाँ फैल रही हैं। इससे ज़मीन की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तथा भूगर्भीय जलस्रोत दूषित हो रहे हैं। पॉलीथीन कचरा जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड एवं डाईऑक्सीन्स जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित होती हैं। इनसे सांस, त्वचा आदि की बीमारियाँ होने की आशंका बढ़ जाती है।
पॉलीथिन का इस्तेमाल करके हम न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि गंभीर रोगों को भी न्यौता दे रहे हैं। पॉलीथिन को ऐसे ही फेंक देने से नालियाँ जाम हो जाती हैं। इससे गंदा पानी सड़कों पर फैलकर मच्छरों का घर बनता है। इस प्रकार यह कालरा, टाइफाइड, डायरिया व हेपेटाइटिस-बी जैसी गंभीर बीमारियों का भी कारण बनते हैं।

भारत में प्रतिवर्ष पॉलीथिन का उपयोग

भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम की रीसाइकिलिंग हो पाती है। यह अनुमान है कि भोजन के धोखे में इन्हें खा लेने के कारण प्रतिवर्ष 1,00,000 समुद्री जीवों की मौत हो जाती है। ज़मीन में गाड़ देने पर पॉलीथिन के थैले अपने अवयवों में टूटने में 1,000 साल से अधिक ले लेते हैं। यह पूर्ण रूप से तो कभी नष्ट होते ही नहीं हैं। जिन पॉलीथिन के थैलों पर बायोडिग्रेडेबल लिखा होता है, वे भी पूर्णतया इकोफ्रेंडली नहीं होते हैं।
  • इस समय विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक का उत्पादन 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष उसे 4 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।
  • भारत में भी प्लास्टिक का उत्पादन व उपयोग बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इकट्ठा हो जाता है। इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढेर पर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है।
  • एक अनुमान के अनुसार केवल अमेरिका में ही एक करोड़ किलोग्राम प्लास्टिक प्रत्येक वर्ष कूड़ेदानों में पहुँचता है।
  • इटली में प्लास्टिक के थैलों की सालाना खपत एक खरब है। इटली आज सर्वाधिक प्लास्टिक उत्पादक देशों में से एक है।

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

सदाबहार की बहार

(टीम अभिव्यक्ति)

मडागास्कर मूल की यह फूलदार झाड़ी भारत में कितनी लोकप्रिय है, इसका पता इसी बात से चल जाता है कि लगभग हर भारतीय भाषा में इसको अलग नाम दिया गया है- उड़िया में अपंस्कांति, तमिल में सदाकाडु मल्लिकइ, तेलुगु में बिल्लागैन्नेस्र्, पंजाबी में रतनजोत, बांग्ला में नयनतारा या गुलफिरंगी, मराठी में सदाफूली और मलयालम में उषामालारि। इसके श्वेत तथा बैंगनी आभावाले छोटे गुच्छों से सजे सुंदर लघुवृक्ष भारत की किसी भी उष्ण जगह की शोभा बढ़ाते हुए सालों साल बारहों महीने (सदाबहार) देखे जा सकते हैं। इसके अंडाकार पत्ते डालियों पर एक-दूसरे के विपरीत लगते हैं और झाड़ी की बढ़वार इतनी साफ़ सुथरी और सलीकेदार होती है कि झाड़ियों को काटने की कभी ज़रूरत नहीं पड़ती।

वैसे तो यह झाड़ी इतनी जानदार है कि बिना देखभाल के भी फलती-फूलती रहती है, किंतु रेशेदार दुमुट मिट्टी में थोड़ी-सी कंपोस्ट खाद मिलने पर आकर्षक फूलों से लदी-फदी सदाबहार का सौंदर्य किसी के भी हृदय को प्रफुल्लित कर सकता है। इसके फल बहुत से बीजों से भरे हुए गोलाकार होते हैं। इसकी पत्तियों, जड़ तथा डंठलों से निकलनेवाला दूध विषैला होता है।

पौधों के सामने भी समस्याएँ होती हैं। पेड़-पौधे चाहते हैं कि उनके फल तो जानवर खाएँ, ताकि उनके बीज दूर-दूर तक जा सकें, किंतु यथासंभव उनकी पत्तियाँ तथा जड़ न खाएँ। इसलिए अनेक वृक्षों के फल तो खाद्य होते हैं, किंतु पत्तियाँ, जड़ आदि कड़वे या ज़हरीले। सदाबहार ने इस समस्या का समाधान अपने फलों को खाद्य बनाकर तथा पत्तियों व जड़ों को कडुवा तथा विषाक्त बनाकर किया है। ऐसे विशेष गुण पौधों में विशेष क्षारीय (एल्कैलायड) रसायनों द्वारा आते हैं।

क्षारों की दुनिया भी बड़ी अजीब है और वैज्ञानिक इनका अध्ययन कर रहे हैं। पेड़-पौधों में पाए जानेवाले क्षारों में अनेक विचित्र गुण होते हैं, कुछ विषैले होते हैं, तो कुछ अफीम सरीखे नशीले, कुछ हृद-शामक, हृद-उत्तेजक, श्वास उत्तेजक, रुधिर-वाहिका संकुचक, स्थानीय संवेदनाहारक, पेशी विश्रांतक और कुछ 'साइकेडैलिक' होते हैं। मज़े की बात यह है कि जो क्षारीय रसायन सामान्य मात्रा में विष, नशा या साइकेडैलिक-भ्रम पैदा करते हैं, वे ही अल्पमात्रा में दवा का काम करते हैं।

सर्पगंधा में रक्तचाप-शमन गुण होता है, जिसके कारण विश्व में इसकी माँग बढ़ी और भारत ने इसका इतना निर्यात किया इसके लुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया, इसलिए इसका निर्यात बंद करना पड़ा। निर्यात बंद हो जाने पर विकसित देशों में अन्य पौधों में रक्तचाप शमन की खोज बढ़ाई, और पता चला कि 'सदाबहार' झाड़ी में यह क्षार अच्छी मात्रा में होता है। इसलिए अब यूरोप भारत चीन और अमेरिका के अनेक देशों में इस पौधे की खेती होने लगी है। अनेक देशों में इसे खाँसी, गले की ख़राश और फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा में इस्तेमाल किया जाता है। सबसे रोचक बात यह है कि इसे मधुमेह के उपचार में भी उपयोगी पाया गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सदाबहार में दर्जनों क्षार ऐसे हैं जो रक्त में शकर की मात्रा को नियंत्रित रखते है।

जब शोध हुआ तो 'सदाबहार' के अनेक गुणों का पता चला - सदाबहार पौधा बारूद - जैसे विस्फोटक पदार्थों को पचाकर उन्हें निर्मल कर देता है। यह कोरी वैज्ञानिक जिज्ञासा भर शांत नहीं करता, वरन व्यवहार में विस्फोटक-भंडारों वाली लाखों एकड़ ज़मीन को सुरक्षित एवं उपयोगी बना रहा है। भारत में ही 'केंद्रीय औषधीय एवं सुगंध पौधा संस्थान' द्वारा की गई खोजों से पता चला है कि 'सदाबहार' की पत्तियों में 'विनिकरस्टीन' नामक क्षारीय पदार्थ भी होता है जो कैंसर, विशेषकर रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया) में बहुत उपयोगी होता है। आज यह विषाक्त पौधा संजीवनी बूटी का काम कर रहा है।

बगीचों की बात करें तो १९८० तक यह फूलोंवाली क्यारियों के लिए सबसे लोकप्रिय पौधा बन चुका था, लेकिन इसके रंगों की संख्या एक ही थी- गुलाबी। १९८८ में इसके दो नए रंग ग्रेप कूलर (बैंगनी आभा वाला गुलाबी जिसके बीच की आँख गहरी गुलाबी थी) और पिपरमिंट कूलर (सफेद पंखुरियाँ, लाल आँख) विकसित किए गए।

१९९१ में रॉन पार्कर की कुछ नई प्रजातियाँ बाज़ार में आईं। इनमें से प्रिटी इन व्हाइट और पैरासॉल को आल अमेरिका सेलेक्शन पुरस्कार मिला। इन्हें पैन अमेरिका सीड कंपनी द्वारा उगाया और बेचा गया। इसी वर्ष कैलिफोर्निया में वॉलर जेनेटिक्स ने पार्कर ब्रीडिंग प्रोगराम की ट्रॉपिकाना शृंखला को बाज़ार में उतारा। इन सदाबहार प्रजातियों के फूलों में नए रंग तो थे ही, आकार भी बड़ा था और पंखुरियाँ एक दूसरे पर चढ़ी हुई थीं। १९९३ में पार्कर जर्मप्लाज्म ने पैसिफ़का नाम से कुछ नए रंग प्रस्तुत किए। जिसमें पहली बार सदाबहार को लाल रंग दिया गया। इसके बाद तो सदाबहार के रंगों की झड़ी लग गई और आज बाज़ार में लगभग हर रंग के सदाबहार पौधों की भरमार है।

यह फूल सुंदर तो है ही आसानी से हर मौसम में उगता है, हर रंग में खिलता है और इसके गुणों का भी कोई जवाब नहीं, शायद यही सब देखकर नेशनल गार्डेन ब्यूरो ने सन २००२ को इयर आफ़ विंका के लिए चुना। विंका या विंकारोज़ा सदाबहार का अंग्रेज़ी नाम है।

शहरी प्रदूषण से बढ़ता है रक्तचाप

जर्मनी के शोधकर्ताओं ने पाँच हज़ार लोगों पर अध्ययन किया और पाया कि लंबे समय तक प्रदूषण झेलने वाले लोगों का रक्तचाप ऊंचा हुआ.शोधकर्ताओं के इस दल का कहना है कि प्रदूषण को कम करने की कोशिश की जानी चाहिए.उच्च रक्तचाप से रक्तवाहिकाएं सख्त हो जाती हैं जिससे दिल के दौरे या पक्षाघात का ख़तरा बढ़ जाता है. डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने आबादी पर चल रहे एक अध्ययन का डेटा इस्तेमाल किया और देखा कि 2000 से लेकर 2003 के बीच वायु प्रदूषण का रक्तचाप पर क्या असर पड़ा. इससे पहले हुए अध्ययन बता चुके हैं कि वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ने से रक्तचाप भी बढ़ सकता है लेकिन अभी तक ये नहीं पता था कि लंबे समय तक प्रदूषण का सामना करने का क्या असर होता है.हमारे शोध के परिणाम बताते हैं कि जिन इलाक़ों में वायु प्रदूषण अधिक है वहां रहने वालों में उच्च रक्तचाप अधिक पाया गया.

डॉ बारबरा हॉफ़मैन, डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय के शोध दल की प्रमुख

डुइसबर्ग ऐसेन विश्वविद्यालय में पर्यावरण और नैदानिक महामारी विज्ञान विभाग की प्रमुख डॉ बारबरा हॉफ़मैन ने कहा, "हमारे शोध के परिणाम बताते हैं कि जिन इलाक़ों में वायु प्रदूषण अधिक है वहां रहने वालों में उच्च रक्तचाप अधिक पाया गया".

उन्होने कहा, "ये ज़रूरी है कि जहां तक हो सके लंबे समय तक लोगों को अधिक वायु प्रदूषण से बचाएं".

अब यह दल इस बात की खोज करेगा कि क्या लंबे समय तक अधिक प्रदूषण में रहने से रक्तवाहिकाएं जल्दी सख़्त हो जाती हैं या नहीं.

ब्रिटिश हार्ट फ़ाउंडेशन में काम करने वाली एक वरिष्ठ नर्स जूडी ओ सलिवेन ने कहती हैं, "हम जानते हैं कि वायु प्रदूषण और दिल और रक्तवाहिकाओं की बीमारियों के बीच संबंध है लेकिन हम अभी यह पूरी तरह नहीं जानते कि यह संबंध क्या है".

उन्होने कहा, "यह अध्ययन एक रोचक सिद्धांत का प्रतिपादन करता है कि वायु प्रदूषण से रक्तचाप बढ़ सकता है. इस दिशा में काफ़ी शोध हो रहे हैं. इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि लोगों को प्रदूषण के ख़तरों से बचाने के लिए क्या किया जाए".

भारत में जल प्रदूषण - एक नए दृष्टिकोण की आवश्यक्ता

जल प्रदूषण भारत में सबसे गंभीर पर्यावरण संबंधी खतरों मे से एक बनकर उभरा है। इसके सबसे बड़े स्रोत शहरीय सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट हैं जो बिना शोदित किया हुए नदियों में प्रवाहित हो रहे हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद शहरों में उत्पन्न कुल अपशिष्ट जल का केवल 10 प्रतिशत हिस्सा ही शोधित किया जा रहा है और बाकी ऐसे ही नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है।

जल के स्रोतों जैसे झील और नदी-नालों में ज़हरीले पदार्थों के प्रवेश से इनमे उपलब्ध पानी की गुणवत्ता में गिरावट आ जाती है जिस से जलीय पारिस्थिकी गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इस के कारण भूमिगत जल भी प्रदूषित हो जाता है। इन सब का इन जल स्रोतों के निकट रहने वाले सभी प्राणियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। भारत सरकार को जल प्रबंधन के मोर्चे पर तत्काल कदम उठाने की आवश्यक्ता है और ठोस परिणाम प्राप्त करने के लिए त्रुटिपूर्ण नीतियों को संशोधित करने की आवश्यकता है।

जल प्रदूषण मानव अस्तित्व की एक वास्तविकता है। कृषि और औद्योगिक उत्पादन जैसी गतिविधियाँ जैविक अपशिष्ट के अलावा जल प्रदूषण भी उत्पन्न करती हैं। भारत में हर वर्ष लगभग 5 ,000 करोड़ लीटर का जल अपशिष्ट उत्पन्न होता है जिसमे औद्योगिक और घरेलू, दोनों ही स्रोतों से उत्पन्न अपशिष्ट जल शामिल हैं। अगर ग्रामीण क्षेत्रों के आंकड़ों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह संख्या और बड़ी हो जाएगी। औद्योगिक अपशिष्ट में पाए जाने वाले हानिकारक तत्वों में नमक, विभिन्न रसायन, ग्रीज़, तेल, पेंट, लोहा, कैडमीयम, सीसा, आर्सेनिक, जस्ता, टिन, इत्यादि शामिल हैं। कुछ मामलों में यह भी देखा गया है कि कुछ औद्योगिक संगठन रेडियो-एक्टिव पदार्थों को भी जल के स्रोतों में प्रवाहित कर देते हैं जो जल शोधन संयंत्रों पर व्यय होने वाले धन को बचाने के लिए नियम कानूनों को ताक पर रख देते हैं।

भारत सरकार के सभी जल प्रदूषण नियंत्रण संबंधी प्रयास विफल रहे हैं क्योंकि शोधन प्रणालियों की स्थापना के लिए अधिक पूँजी निवेश और परिचालन के लिए भी अधिक आती है। शोधन संयंत्रों की उच्च लागत न केवल किसानो बल्कि फैक्टरी मालिकों के लिए भी सिरदर्द का कारण है क्योंकि इस से उनके द्वारा तैयार किये जा रहे उत्पादों की लागत बढ़ जाती है। किसी भी कारखाने में जल शोधन संयंत्र की स्थापना और उसके संचालन की लागत उस कारखाने के कुल खर्चों के 20 प्रतिशत तक हो सकती है। इसलिए हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं जिसमे सरकारी मानदंडों के होने के बावजूद प्रदूषित जल बिना शोधन प्रक्रिया से गुज़रे हुए नदियों में बहाया जा रहा है।

दूसरी ओर भारत सरकार के जल प्रदूषण नियंत्रण पर प्रति वर्ष लाखों रुपए खर्च कर रही है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत सरकार ने देश में विभिन्न जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं, जैसे गंगा कार्य योजना और यमुना कार्य योजना पर अब तक लगभग 20,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। लेकिन अभी तक कोई भी सकारात्मक परिणाम दिखाई नहीं दिए हैं। सरकार को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि जल स्रोतों को प्रदूषण मुक्त करने के सभी उपाय विफल हो जायेंगे जब तक बिना शोधन के औद्योगिक और अन्य अपशिष्ट जल को उनमे प्रवाहित होने से नहीं रोका जाएगा।

इसलिए सरकार को जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर पैसा खर्च करने के बजाय कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में जल शोधन संयंत्रों की स्थापना और संचालन को बढ़ावा देना चाहिए। जल प्रदूषण नियंत्रण परियोजनाओं पर खर्च किये जाने वाले धन को उन उद्योगों को सब्सिडी देने और उन पर कड़ी निगरानी रखने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो अपनी गतिविधियों से अपशिष्ट जल उत्पन्न करते हैं। नैनोटेकनोलोजी जैसे क्षेत्रों में अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि कम लागत में जल शोधन संयंत्र स्थापित किये जा सकें। यहाँ भी सरकार का दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि शोधित जल को नदियों में प्रवाहित करने के बजाय कृषि जैसी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया जाए।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस गृह पर उपलब्ध कुल पानी का मात्र 0.3 प्रतिशत हिस्सा ही मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों के उपभोग के लिए ठीक है। शेष 99.7 प्रतिशत जल या तो समुद्र के पानी के रूप में मौजूद है या फिर पहाड़ों पर हिमनद के रूप में। इसलिए जल प्रदूषण के मुद्दे की और अधिक उपेक्षा करना तृतीय विश्व युद्ध को आमंत्रित करने जैसा होगा जो जल संसाधनों के नियंत्रण के लिए लड़ा जाएगा।

अम्बरीष श्रीवास्तव


प्रदूषण फैलाने वाली 27 इकाइयां चिह्नित

उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की सहायक गोमती नदी में प्रदूषण फैलाने वाली 27 इकाइयों को चिह्नित किया है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों में से 7 चीनी मिलें हैं, जबकि 5 यीस्ट इकाइयां हैं। शेष छोटी औद्योगिक इकाइयां हैं, जिसमें कृषि आधारित कागज कंपनी शामिल है।
बहरहाल, राज्य सरकार ने दावा किया है कि यह सभी प्रदूषणकारी इकाइयों ने कहा है कि वे प्रदूषण नियंत्रण मानकों को पूरा करने के लिए शोधन संयंत्र लगाएंगी।
गोमती नदी पीलीभीत के टिहरी इलाके से निकलती है, जो उत्तर प्रदेश की प्रमुख नदी है। यह लखनऊ, लखीमपुर खीरी और जौनपुर सहित 15 शहरों से होकर गुजरती है या इसके क्षेत्र में आते हैं। राज्य में इसकी कुल लंबाई 900 किलोमीटर है और बिहार की सीमा पर गाजीपुर जिले में यह गंगा से मिल जाती है।
मायावती सरकार ने हाल ही में राज्य विधानसभा में कहा था कि प्रदूषण करने वाली सभी चीनी मिलें शोधन संयंत्र स्थापित करेंगी और पेराई सत्र में अपने कचरे का निस्तारण उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) से संपर्क के बाद ही करेंगी। उत्तर प्रदेश जल निगम (यूपीजेएन) ने लखनऊ में 2 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किए हैं, जिनकी क्षमता 56 एमएलडी और 345 एमएलडी है, जिसके जरिये घरेलू जलापूर्ति होती है। सुल्तानपुर जिले मेंं 5 एमएलडी का ऑक्सिडेशन पौंड है और 9 एमएलडी एसटीपी भी प्रस्तावित है।
यीस्ट इकाइयां औद्योगिक कचरे से बायोगैस और बायोकंपोस्ट का निर्माण करती है, जो अपना प्रदूषण स्तर शून्य कर रही हैं। छोटी इकाइयां भी शोधन संयंत्र लगा रही हैं।