रविवार, 26 सितंबर 2010

बचाए अपने पर्यावरण को


पर्यावरण, ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य उपहार है जो संपूर्ण मानव समाज का एकमात्र महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य भौतिक तत्वों - पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि से मिलकर पर्यावरण का निर्माण हुआ हैं। यदि मानव समाज प्रकृति के नियमों का भलीभाँति अनुसरण करें तो उसे कभी भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में कमी नहीं रहेगी। मनुष्य अपनी आकश्यकताओं की पूर्ति के लिए वायु, जल, मिट्टी, पेड-पौधों, जीव-जन्तुओं आदि पर निर्भर हैं और इनका दोहन करता आ रहा हैं।

वर्तमान युग औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण का युग है। जहाँ आज हर काम को सुगम और सरल बनाने के लिए मशीनों का उपयोग होने लगा हैं, वहीं पर्यावरण का उल्लंघन भी हो रहा हैं। ना ही पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दिया जा रहा है और ना ही प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य तत्वों का सही मायने में उपयोग किया जा रहा हैं, परिणामस्वरूप प्रकृति कई आपदाओं का शिकार होती जा रही हैं।
वर्तमान समय में मनुष्य औद्योगिकीकरण और नगरीकरण में इस तरह से गुम हो चुका हैं कि वह स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने लगा है और पर्यावरण को असंतुलित बनाए हुए हैं। परिणाम स्वरूप मनुष्य को प्रदूषण, बाढ़, सूखा आदि आपदाओं का सामना करना पड़ता हैं। यदि मनुष्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य तत्वों की श्रृंखला का सुरक्षित तरीके से उपभोग करे तो पर्यावरण को संरक्षित रखा जा सकता हैं।
audyogikiikaran और मशीनीकरण के युग में प्रकृति पर अत्याचार होने लगा है, परिणामस्वरूप पर्यावरण में प्रदूषण, अशुद्ध वायु, जल की कमी, बीमारियों की भरमार दिन-प्रतिदिन एक गंभीर चर्चा का विषय बनी हुई हैं, जिससे न तो मनुष्य प्रकृति को बचा पा रहा हैं और न ही खुद को । आज जहाँ मानव समाज विलासितापूर्ण जीवन की चाह लिए हुए प्रकृति का अति दोहन करता जा रहा हैं, वहीं वह अज्ञानतावश स्वयं की जान का भी दुश्मन बन चुका हैं।
पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व हैं। जिस तरह आज औद्योगिकीकरण के युग में वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, वहाँ आज समाजसेवी संस्थाओं को जन-चेतना को जागृत और प्रोत्साहित करते हुए वृक्षारोपण को एक अनिवार्य गतिविधि बना देना चाहिए, ताकि मनुष्य अपनी विलासिताओं के लोभ में पर्यावरण का दुरूपयोग न कर सकें।
"पर्यावरण और ईश्वर, प्रकृति के वह दो पहलू हैं, जिसकी पूजा और महत्ता के बिना जीवन अधूरा हैं"।

आज मनुष्य आधुनिकता की दौड़ में "पर्यावरण और ईश्वर" दोनों को ही भूलता चला जा रहा हैं। जब मनुष्य पर्यावरण की महत्ता को समझ लेगा, तब वह स्वयं का जीवन सफल बना सकता है और ईश्वर प्रदत्त इस प्रकृति को सुरक्षित बनाए रख सकता हैं।

गुम होते गजराज



संदीपसिंह सिसोदिया

भारत में हाथियों की पूजा होती है. भारतीय संस्कृति में गजराज का अलग स्थान है. लेकिन आज के जमाने में हाथियों को सबसे ज्यादा खतरा अपने पूजकों से ही है. भारत में शिकार और घटते जंगलों से उनकी संख्या घट रही है.

लोभ के शिकार

इनसानों की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए जंगलों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है. आबादी के जंगलों में सरकने से, जंगली जानवरों के आने जाने के रास्ते पर बढ़ते अतिक्रमण के चलते मनुष्य और जानवरों की मुठभेड़ बढ़ी है. इसका नतीजा अकसर वन्यजीवों के लिए ही नुकसानदेह होता है. कुछ सालों से सरकार को पूर्वोत्तर भारत के पड़ोसी देशों और लोगों से अपील करनी पड़ रही है क‍ि उनके गांवों खेतों में गलती से घुस आए हाथियों की हत्या न की जाए. हर साल बड़ी तादाद में हाथी दांत की तस्करी होती है, जिसके लिए हाथियों को मार दिया जाता है.

टकराव के रास्ते

समस्या यह है कि जंगल में बने हाथियों के रास्तों पर लोगों ने आबादी वाले गांव बसा लिए हैं. इस वजह से हाथी वापस जाने का रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे हैं और हिंसक हो रहे हैं. ये हाथी थाइलैंड से भूटान की ओर जाते हैं और भारत का पूर्वोत्तर हिस्सा उनके रास्ते में पड़ता है.

मगर अधिकारियों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में हाथियों की संख्या बढ़ी है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में लगभग 25,000 हाथी हैं. वे अलग अलग रास्तों से जंगलों में घुसने की कोशिश करते हैं. यह समस्या सिर्फ बांग्लादेश, थाइलैंड या भूटान की नहीं, बल्कि भारत के पूर्वोत्तर राज्यों की भी है.

प्रजनन, मौसम की मार से बचने और खाने की तलाश में जंगली जानवर हर साल एक निश्चित अवधि या मौसम में एक इलाके से दूसरे इलाके की ओर जाते हैं. ये हाथी हर साल थाइलैंड से भूटान की तराई में जाते हैं, जिसके बीच पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा है. हर साल यह हाथी रास्ते में आने वाले कई गांव उजाड़कर लोगों को मार देते हैं और कई लोग इन मुठभेड़ों में घायल भी हो जाते हैं.

पूर्वोत्तर भारत में जंगली हाथी अच्छी खासी संख्या में पाए जाते हैं और सिर्फ असम में इनकी संख्या 5000 से अधिक बताई जाती है. लेकिन जैसे जैसे असम में आबादी बढ़ती गई, लोगों ने ऐसे इलाकों में पांव पसारने शुरू कर दिए, जो हाथियों के रास्ते थे. नतीजतन हाथी रास्ते में आने वाले गांवों में तबाही मचा देते हैं. इसका भुगतान उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. हाथियों के उपद्रव से भड़के लोग इन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं और कभी गुड़ में जहर रखकर तो कभी शिकारियों को बुलाकर उन्हें मार देते हैं.

संवेदनशील प्राणी

हाथी एक सामाजिक प्राणी है और झुंड बनाकर रहता है. यह प्राणी काफी संवेदनशील होता है. हाथी की याददाश्त काफी तेज मानी जाती है. यहां तक कि अपने झुंड के किसी सदस्य के मारे जाने पर अकसर हाथी गुस्से में आकर तबाही मचा देते हैं. भारतीय हाथी (एलिफास मैक्सिमस इंडिकस) एशियाई हाथी की चार उपजातियों में से एक है. भारत के अलावा हाथी बांग्लादेश, पाकिस्तान, भूटान, कंबोडिया, चीन, लाओस, मलयेशियाई प्रायद्वीप, म्यांमार, नेपाल, थाइलैंड और वियतनाम में भी पाए जाते हैं.

सैटेलाइट से मिली ताजा तस्वीरें बताती हैं कि असम में 1996 से 2008 के बीच जंगल की लगभग चार लाख हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर गांव वालों ने अतिक्रमण कर खेती बाड़ी शुरू कर दी है. इस क्षेत्र में हाथियों के पुराने रास्ते भी हैं. जैसे ही हाथियों के प्रजनन का मौसम शुरू होता है, हाथी इन रास्तों पर अपनी यात्रा शुरू कर देते हैं.

प्रजनन के मौसम में कई बार नर हाथी बेकाबू हो कर सामने आने वाली हर चीज को तहस नहस कर देते हैं. मस्ताने हाथी अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए आपस में लड़ाई तो करते ही हैं साथ ही पेड़ पौधों को भी उखाड़ फेंकते हैं. यहां तक कि कई बार ये हाथी गैंडे जैसे बड़े जानवर को भी मार देते हैं.

हाथियों के आबादी वाले इलाके में घुसने से अकसर जानमाल का नुकसान होता है. पर इस घुसपैठ का कारण ढूंढने के लिए पहले ये सोचना होगा कि हाथी हमारे इलाकों में घुस आए हैं या हम उनके इलाके में घुसे हैं.

'कुंकी' करेंगे काबू

असम में जंगली हाथियों के नियंत्रण के लिए 'कुंकी' नाम से जाने जाने वाले पालतू हाथियों की मदद ली जा रही है. असम और पश्चिम बंगाल के बहुत से इलाकों में अकसर उग्र हाथियों के झुंड खेतों, गांवों और लोगों पर हमला कर भारी तबाही मचाते हैं.

विशेषज्ञों ने उग्र हाथियों को पालतू हाथियों के जरिये घेरकर उन्हें रास्ते पर लाने की कोशिश की है. इसके नतीजे भी निकले हैं. सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में इस रणनीति को अपनाया गया, वहां हाथियों की हिंसा से मरने वालों की संख्या में आश्चर्यजनक कमी हुई है. इस परियोजना के अधिकारी जंगली हाथियों के झुंड की गतिविधियों पर नजर रखते हैं और उनको पालतू हाथियों से घेर कर गांव से दूर रखते हैं.

इस योजना को वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड से भी मदद मिली है. हाथियों को भगाने के क्रूर पारंपरिक तरीकों जैसे करंट लगाना, फन्दे कसना और बम फोड़ना आदि से यह रणनीति काफी कारगर सिद्ध हुई है. वन्यजीव प्रेमी भी इस पहल से उत्साहित हैं.

सुरक्षित गलियारा

हाथियों की बढ़ती समस्या के बाद भारत में अब कोशिश की जा रही है कि दो जंगलों के बीच एक कॉरिडोर (गलियारा) बना कर उसका संरक्षण किया जा सके. सुरक्षित रास्ते के लिए हाथियों के कॉरिडोर पर तैयार की गई रिपोर्ट पर लगभग सभी बड़े विशेषज्ञों की राय ली गई है. उम्मीद है कि इससे हाथियों को जंगलों में ही रोकना संभव होगा और उनके आबादी वाले इलाकों में घुसने की घटनाओं में कमी आएगी.

भारत में ऐसे 88 गलियारों की पहचान की गई है और उन पर कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं सरकार के साथ मिलकर काम कर रही हैं. पर भारत में वन्यजीवों के रहवास के लिए किए जा रहे सभी प्रयासों में एक समस्या मुंह बाए खड़ी रहती है. वह है बढ़ती जनसंख्या की. लगातार बढ़ती जनसंख्या और जंगल पर बढ़ते दबाव ने पिछले कुछ दशकों में हाथियों की समस्या को बढ़ाया है.

इसके लिए देखना होगा कि हाथी दो जंगलों के बीच जिन इलाकों का उपयोग ऐतिहासिक रूप से करते रहे हैं, वहां कितने गांव हैं. आबादी का कितना घनत्व है. दरअसल यही वो इलाके हैं जिन्हें विशेषज्ञ कॉरिडोर कहते हैं. इनके बंद हो जाने के कारण हाथियों ने मानव रहवासी क्षेत्रों में घुसपैठ कर मुसीबतें बढ़ा दी हैं.

भारत के अलग अलग राज्यों के इन गलियारों को अब हाथियों के लिए संरक्षित करने की कोशिश हो रही है. इस योजना से वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, इंटरनेशनल फंड फॉर एनिमल वेलफेयर, यूएस विश एंड वेलफेयर सर्विस और एशियन नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन जुड़े हैं. इसके अलावा गलियारों के संरक्षणों के लिए केंद्र और राज्य सरकार की भी सहायता ली जा रही है.

उम्मीद की किरण

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाथी को भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बताते हुए जल्द ही राष्ट्रीय धरोहर प्राणी घोषित किया जाने की बात कही थी. उनका कहना है कि हम जल्द ही हाथी को राष्ट्रीय धरोहर प्राणी घोषित करेंगे क्योंकि वे युगों से हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं. इन विशाल प्राणियों का संरक्षण करने के लिए हमें इन्हें बाघों की तरह ही अहमियत देने की जरूरत है. साथ ही उन्होने बताया कि एनटीसीए की तर्ज पर राष्ट्रीय हाथी संरक्षण प्राधिकरण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए वन्य जीव (संरक्षण) कानून में भी संशोधन की जरूरत है.

अब उम्मीद है कि इन गलियारों को 'राजकीय गलियारा' घोषित कर दिया जाए और लोगों को जानकारी दी जाए कि इन इलाकों में विकास नहीं किए जा सकते. अब ऐसे इलाकों में लोगों को सिर्फ हाथियों से बचना ही नहीं है, हाथियों को बचाना भी जरूरी है.


शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

जीवनदायिनी नदियों पर खतरे के बादल

- अमितांशु पाठक

छायाएँ, पेड़, मकान, खेत और उगता हुआ सूरज सब जड़ हैं। उसे किसी ने आवाज देकर रोका नहीं। गाँव से पार होते ही उसे माँ की चीख सुनाई दी। उसने इधर-उधर दूर तक देखा। लगा किसी माँ की गोद से उसका बच्चा वक्त का दानव संग लिए चला जा रहा है।

उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल को हराभरा रखने वाली एक दर्जन से ज्यादा नदियाँ मृतप्राय हो चुकी हैं। जो बची हैं उनके अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। गंगा समेत सभी नदियाँ या तो प्रदूषण की मार झेल रही हैं या सूख गई हैं। नदियों के सूखने एवं उनके जल स्तर में हो रही कमी की खबरें जिस तरह से आ रही हैं वे किसी त्रासदी से कम नहीं हैं।

पूर्वी उत्तरप्रदेश के जिलों में जिस तरह से भूजल स्तर गिरता जा रहा है एवं पानी का संकट गंभीर होता जा रहा है, यह चिंता का विषय है। इनमें से ज्यादातर नदियाँ गंगा की सहायक नदियाँ (ट्रिब्यूटरी) हैं। 'जल ही जीवन है' और 'पानी को बर्बादी से बचाएँ' जैसे लुभावने नारे तो सुनने और पढ़ने को मिलते हैं लेकिन कीमती जल को बचाने के प्रति न तो जनता गंभीर है, न ही सरकार।

नहाने, धोने, सिंचाई करने, पूजा-पाठ से लेकर सभी संस्कार आज भी इन्हीं नदियों के किनारे संपन्न होते हैं। इन जीवनदायिनी नदियों के सूख जाने से हमारी क्या दुर्दशा होगी शायद हमें अभी आभास नहीं हो रहा है। पानी का जीवन में क्या महत्व है यह नदियों के किनारे बसने वाले ही बता सकते हैं।
धार्मिक नगरी वाराणसी को ही लें। शहर के मध्य बहने वाली दो पौराणिक नदियों वरुणा एवं असि (अस्सी) के बीच बसी काशी को वाराणसी नाम मिला है। काशी का तो अस्तित्व भी नहीं बचा है। दोनों नदियाँ गंदे नाले के रूप में परिवर्तित हो चुकी हैं। उनके जल से दुर्गंध आती है।
शहर की एक बड़ी आबादी का मल-मूत्र सीधे इन्हीं नदियों से होकर गंगा में सीधे गिर रहा है जो गंगा में प्रदूषण का मुख्य कारण है। नदी के दोनों किनारों पर लोगों ने कब्जा कर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ बना ली हैं। इन नदियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए न सरकार गंभीर है और न ही जनता।
वरुणा में जलचर जीवों मछली एवं कछुआ के बारे में सोचना भी कल्पना मात्र है। ऐसा नहीं कि वरुणा की दुर्दशा के बारे में अधिकारियों एवं मंत्रियों को जानकारी नहीं है। जिले के अधिकारी वरुणा की सफाई एवं उसमें गिर रहे नालों को रोकने, नौका विहार एवं वृक्षारोपण जैसी योजना भी बनाते हैं लेकिन ये प्लान कागजों तक ही सीमित हैं। जिस वरुणा एवं असि के योग से काशी का नाम वाराणसी पड़ा उसमें गंदे नाले बेरोकटोक गिर रहे हैं। वरुणा एवं अस्सी में पानी की मात्रा कम कचरा ज्यादा नजर आता है।
जौनपुर में गोमती एवं पीली नदी का यही हाल है। गोमती की हालत खस्ता है। पीली नदी में पानी का नामोनिशान नहीं है। गाजीपुर में मगई नदी सूख चली है। नदी की तलहटी में धूल उड़ रही है। गड़ई, तमशा, विषही, चंद्रप्रभा एवं सोन नदियों की भी हालत बदतर है। गर्मी शुरू होते-होते ये नदियाँ सूख जाती हैं और उनमें केवल धूल उड़ती रहती है। इस बार भी वे नदियाँ सूख चुकी हैं। फैजाबाद में भी विषही एवं मडहा नदियों के पेटे तक लोग खेती करने लगे हैं।
इन नदियों के सूखने का सबसे बड़ा कारण यह है कि इनमें सिल्ट जमते-जमते ये छिछली हो गई हैं। बारिश के कुछ घंटे बाद ही इनका पानी बह जाता है। इस समस्या का अध्ययन करने वाले काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की राय है कि जब तक इन नदियों में जमी सिल्ट को हटाकर गहरा नहीं किया जाएगा तब तक गहरे पानी की कल्पना करना बेमानी होगा। इन नदियों पर सैकड़ों गाँवों के लाखों लोगों की जिंदगी की गुजर-बसर आधारित है।
रामचरित मानस में वर्णित तमसा नदी का वजूद भी खतरे में है। आजमगढ़ में साल-दर-साल इसका जलस्तर गिरता जा रहा है। नदी का स्वरूप नाले जैसा हो गया है। मिर्जापुर में बहने वाली खजुरी नदी का भी अस्तित्व मिटने की कगार पर है। इन नदियों के सूखने से आम आदमी और पशुओं की पेयजल की भी समस्या पैदा हो गई है। पहले शहरवासी पानी के संकट से जूझते थे लेकिन अब तो ग्रामीण भी पानी की कमी की मार झेल रहे हैं। प्रतापगढ़ में सई नदी का पानी प्रदूषण से काला पड़ गया है। आदमी तो दूर, जानवर भी इस पानी को नहीं पीते।
नदियों की धारा बनाए रखने एवं इन्हें प्रदूषण से मुक्त करने की बात सरकारी तौर पर समय-समय पर की जाती है तथा तमाम योजनाएँ भी बनती रही हैं लेकिन कोई भी योजना कारगर रूप से नहीं लागू हो पाई। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के नाम पर सरकार ने अब तक तीन चरणों में अरबों रुपए खर्च किए हैं लेकिन खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्रदूषण कम होने के बजाय और बढ़ा है।
प्रख्यात पर्यावरणविद् महंत वीरभद्र मिश्र के अनुसार इन नदियों के तट पर हर साल वरुणा महोत्सव, तमसा महोत्सव, गोमती महोत्सव जैसे खर्चीले आयोजन कर सरकार अपने कर्तव्य को पूरा मान लेती है पर जब तक इन नदियों को बचाने के लिए कारगर मुहिम को जन आंदोलन का रूप नहीं दिया जाएगा तब तक नदियों को विनाश से बचाना संभव नहीं होगा।
देश की प्रमुख नदियों को जोड़ने की बात सालों से चल रही है लेकिन आज तक इस पर अमल नहीं हुआ। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पर्यावरणविद् प्रो. वी.डी. त्रिपाठी का कहना है कि नदियों का पर्यावरण संतुलन दिनोदिन बिगड़ रहा है जो मानव जीवन के लिए खतरे का संकेत है। नदियों का सीधा संबंध वायुमंडल से होता है। अत्यधिक जलदोहन एवं मल-जल की मात्रा बढ़ने से नदियों के जल में लेड, क्रोमियम, निकेल, जस्ता आदि धातुओं की मात्रा बढ़ती जाती है जो मानव जीवन के लिए खतरे की घंटी है।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ही प्रो. यू.के. चौधरी का मानना है कि नदियाँ हमारी जीवन रेखा हैं। इन्हें हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए। नदी का सीधा संबंध पानी, मिट्टी एवं वायु से होता है। अगर इन नदियों का अस्तित्व समाप्त हो गया तो गंगा एवं यमुना के हरे-भरे क्षेत्र को रेगिस्तान में बदलते देर नहीं लगेगी। न केवल पीने के पानी बल्कि खेती के लिए गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि नदी के किनारे खेती होनी चाहिए। अगर उनके दोनों किनारों पर कब्जा करके अट्टालिकाएँ खड़ी की जाती रही, जैसा पूर्वी उत्तरप्रदेश की नदियों के तटों पर हो रहा है, तो नदियों की सांसें थम जाएँगी और हमारी जीवनदायिनी नदियाँ इतिहास के पन्नों तक सीमित रह जाएँगी।

जलवायु प्रदूषण फैलाने वाले 10 देशों में भारत भी


पर्यावरण प्रदूषण फैलाने वाले 10 देशों की सूची में भारत को भी शामिल किया गया है। ऑस्ट्रेलिया में तैयार की गई इस रिपोर्ट में भारत को सातवां स्थान दिया गया है जबकि ब्राजील को प्रदूषण के मामले में पहले नंबर पर रखा गया है।

ऑस्ट्रेलिया में एडिलेड विश्वविद्यालय के पयार्वरण संस्थान के प्रोफेसर कोरी ब्रैडशॉ द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में भारत को सातवां स्थान दिया गया है जबकि ब्राजील के बाद कार्बन उत्सर्जन करने वाले अग्रणी देशों में अमेरिका एवं चीन शामिल हैं।

नए अध्ययन के मुताबिक सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देशों की सूची में ब्राजील, अमेरिका, चीन, इंडोनेशिया, जापान, मेक्सिको, भारत, रूस, ऑस्ट्रेलिया और पेरु शामिल हैं।

जल प्रदूषण, कार्बन उत्सर्जन और जीव-जंतुओं को खतरा जैसे प्रमुख मुद्दों को शामिल कर इस रिपोर्ट को तैयार किया गया। अध्ययन को विज्ञान की एक पत्रिका में बुधवार को प्रकाशित किया गया था।

ब्रैडशॉ के मुताबिक प्रदूषण फैलाने वाले 10 देशों में अमेरिका और चीन का शामिल होना आश्चर्यजनक बात नहीं है। फिर भी इस बात को लेकर लोग आश्चर्यचकित थे कि सामान्यतौर पर एक गरीब देश ब्राजील ने इस रिपोर्ट में शीर्ष स्थान हासिल किया है।

उन्होंने कहा कि आप जितना ही धनी होंगे पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुंचाएंगे। यह सिर्फ मानव का स्वभाव मात्र है।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

सफाई के नाम पर और मैली हुई नर्मदा


हिंदू पुराणों में शिवपुत्री नर्मदा को गंगा से भी पवित्र नदी माना गया है . जनश्रुति है कि पवित्र नदी गंगा वर्ष में एक बार काली गाय के रूप में नर्मदा में स्नान करने आती है और पवित्र होकर श्वेतवर्णी गाय के रूप में फिर से स्वस्थान लौट जाती है. नर्मदा पुराण में कहा गया है कि नर्मदा के दर्शन मात्र से पापियों के पाप नाश हो जाते है. लेकिन आज कठोर सच यह है कि पवित्र नर्मदा नदी मानव जन्य प्रदूषण के कारण अपवित्र गंदी हो गई हैं और अब कहीं-कहीं तो नर्मदा जल स्नान के लायक भी नहीं बचा है. भारत सरकार ने मध्यप्रदेश की नर्मदा, क्षिप्रा, बेतवा और ताप्ती नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के कार्यक्रम के लिए 15 करोड़ रू. की विशेष सहायता दी है , लेकिन काम इतनी धीमी गति से और बेतरतीब तरीक़े से हो रहा है कि इन नदियों में जल प्रदूषण की समस्या जस की तस बनी हुई है. नर्मदा भारत की पांच बड़ी नदियों में गिनी जाती है, जो पश्चिम की ओर बहकर अरब सागर में गिरती है. मध्यप्रदेश के अमरकंटक पर्वत की मेकल पर्वत श्रेणी से निकली नर्मदा नदी 1312 किलोमीटर का लंबा स़फर तय करके गुजरात में भड़ौच के समीप अरब सागर की खंबात की खाड़ी में समुद्र से जा मिलती है. नर्मदा मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में बहती हैं लेकिन नदी का 87 प्रतिशत जल प्रवाह मध्यप्रदेश में होने से, इस नदी को मध्यप्रदेश की जीवन रेखा कहा जाता है. आधुनिक विकास प्रक्रिया में मनुष्य ने अपने थोड़े से लाभ के लिए जल , वायु और पृथ्वी के साथ अनुचित छेड़-छाड़ कर इन प्राकृतिक संसाधनों को जो क्षति पहुंचाई है, इसके दुष्प्रभाव मनुष्य ही नहीं बल्कि जड़ चेतन जीव वनस्पतियों को भोगना पड़ रहा है. नर्मदा तट पर बसे गांव, छोटे-बड़े शहरों, छोटे-बड़े औद्योगिक उपक्रमों और रासायनिक खाद और कीटनाशकों के प्रयोग से की जाने वाली खेती के कारण उदगम से सागर विलय तक नर्मदा प्रदूषित हो गई है और नर्मदा तट पर तथा नदी की अपवाह क्षेत्र में वनों की कमी के कारण आज नर्मदा में जल स्तर भी 20 वर्ष पहले की तुलना में घट गया है. ऐसे में नर्मदा को प्रदूषण मुक्त करना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत बन गई है, लेकिन मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारें औद्योगिक और कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए नर्मदा की पवित्रता बहाल करने में ज़्यादा रुचि नहीं ले रहे है.नर्मदा का उदगम स्थल अमरकंटक भी शहर के विस्तार और पर्यटकों के आवागमन के कारण नर्मदा जल प्रदूषण का शिकार हो गया है. इसके बाद, शहडोल , बालाघाट, मण्डला, शिवनी, डिण्डोरी, कटनी, जबल पुर, दामोह, सागर, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, बैतूल , होशंगाबाद, हरदा, रायसेन, सीहोर, खण्डवा, इन्दौर, देवास, खरगोन, धार, झाबुआ और बड़वानी जिलों से गुजरती हुई नर्मदा महाराष्ट्र और गुजरात की ओर बहती है, लेकिन इन सभी जिलों में नर्मदा को प्रदूषित करने वाले मानव निर्मित सभी कारण मौजूद है. अमलाई पेपर मिल शहडोल, अनेक शहरों के मानव मल और दूषित जल का अपवाह, नर्मदा को प्रदूषित करता है. सरकार ने औद्योगीकरण के लि ए बिना सोचे समझे जो निति बनाई उससे भी नर्मदा जल में प्रदूषण बड़ा है, होशंगाबाद में भारत सरकार के सुरक्षा क़ागज़ कारखाने बड़वानी में शराब कारखानें, से उन पवित्र स्थानों पर नर्मदा जल गंभीर रूप से प्रदूषित हुआ है. गर्मी में अपने उदगम से लेकर, मण्डला, जबल पुर, बरमान घाट, होशंगाबाद, महेश्वर, ओंकारेश्वर, बड़वानी आदि स्थानों पर प्रदूषण विषेषज्ञों ने नर्मदा जल में घातक वेक्टेरिया और विषैले जीवाणु पाए जाने की ओर राज सरकार का ध्यान आकर्षित किया है.
मण्डला में ही नर्मदा जल में घातक प्रदूषण होने लगा है और जबल पुर आते-आते तो प्रदूषण की समस्या और भी गंभीर हो जाती है. गुजरात में औद्योगीकरण ने नर्मदा जल का प्रदूषण स्तर और भी बढ़ाया है. अंकलेश्वर में नर्मदा जल घातक स्तर तक प्रदूषित पाया जाता है. प्रदूषित नर्मदा को पवित्र बनाने और प्रदूषण मुक्त करने के लिए भारत सरकार ने राज्यों को सहायता उपलब्ध कराई है और राज्यों को यह महत्वपूर्ण कार्य उच्च प्राथमिकता से करने की हिदायत दी है, लेकिन मध्यप्रदेश में हिंदूवादी भाजपा सरकार बड़ी सुस्त गति से नर्मदा की पवित्रता बहाल करने के लिए काम कर रही है. नर्मदा के भावनात्मक दोहन और हिन्दु राजनीति के लिए इस्तेमाल पर भाजपा और राज्य सरकार उत्सव, जुलूस और आयोजनों पर तो भारी ख़र्च करती है और उनके आयोजनों से नदी में प्रदूषण फैल जाती है, लेकिन नर्मदा जल की पवित्रता बहाल करने और नर्मदा के किनारे के पर्यावरण को सुधारने के लिए भाजपा और राज्य सरकार के पास न तो कोई सोच है और न तो कोई इच्छा शक्ति है. हाल ही इस वर्ष मई माह में राज्य सरकार के नगरीय प्रशासन विभाग ने नर्मदा के उदगम स्थल अमरकंटक में नदी को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए 50 ल ाख रू. की मंजूरी दी है.
सरकार का मानना है कि उदगम स्थल से ही पवित्रता बहाल करके नदी को प्रदूषण मुक्त कराया जा सकता है. जबल पुर, होशंगाबाद और दूसरे नगरों में स्थानीय नगरीय संस्थाओं को नर्मदा नदी को प्रदूषण मुक्त करने और तटवर्ती औद्योगिक उपक्रमों को दूषित जल शोधित करने के निर्देश भी राज्य सरकार द्वारा दिए गए है, लेकिन अभी तक नदी को प्रदूषित करने वाले किसी भी उद्योग के ख़िला़फ सरकार ने कोई कड़ी क़ानूनी कार्यवाही नहीं की है. इससे राज्य सरकार की कमज़ोर इच्छा शक्ति का पता चलता है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सीहोर जिले में नर्मदा तट के निवासी है और स्वयं को नर्मदा पुत्र बताकर इस क्षेत्र की जनता का भावनात्मक दोहन करते रहते है, लेकिन औद्योगिक विकास के नाम पर मुख्यमंत्री बिना सोचे समझे नए उद्योग लगाने के लिए नर्मदा तट को प्राथमिकता दे रहे है. इससे नर्मदा तट के वनों को क्षति हो रही है और नर्मदा जल के प्रदूषण का नया ख़तरा पैदा हो रहा है.

गंगा को प्रदूषित करने वाली स्थितियां समाप्त हो


गंगा को हम भारतवासी मां कहते हैं। गंगा ही नहीं सभी नदियां हमारे लिये मातृस्वरूप है। इतिहास साक्षी है कि सभ्यताओं का विकास नदियों के तट पर ही हुआ है। जल ही जीवन है, यह कथन इसलिये भी सत्य है कि जल के अभाव में, शुद्ध जल के बिना न वनस्पतियां उग सकती हैं, न खेती हो सकती है और न मनुष्य ही जीवित रह सकता है इसलिये जो हमें जीवन देती है उसे मां कहते है। गंगा के अभाव में सागर पुत्रों को पुर्नजीवन प्राप्त नहीं हो सकता था अर्थात यदि गंगा धरती पर न आती तो अन्य नक्षत्रों की भांति हमारी धरती भी आज जीवहीन होती इसलिये जीवन के ऋण से मुक्त होने के वास्ते हम भारतवासियों का कर्तव्य है कि हमारे ही द्वारा प्रदूषित हो रही गंगा को हम अपने सामूहिक प्रयास से उसे उसी भांति प्रदूषण मुक्त करने का संवेद प्रयास करें जैसे पुत्र अपनी मां को निरोगता प्रदान करने के लिये संकल्पबद्ध होकर उसके लिये औषधि आदि का प्रबंध करते हैं।

औद्योगिक क्रांति एवं बढती आबादी के प्रदूषण ने गंगा के जल को दूषित किया है इसलिये जहां-जहां भी गंगा के तट पर फैक्टरियां बनी हैं और जिन गंदे नालों का पानी गंगा में गिराया जाता है उसे अविलम्ब बंद कराने का जनता द्वारा दबाव बनाया जाना चाहिये और सरकार को अपने स्तर से वे सारे प्रयास करने चाहिये जिससे गंगा को प्रदूषित करने वाली स्थितियां समाप्त हो सकें।

विश्व में नदियां तो तमाम है किन्तु गंगा के जल में ही वे तत्व पाये जाते है इसका जल वर्षों किसी बोतल में रखे रहने पर भी खराब नहीं होता यही कारण है कि धार्मिक रूप में हो या वैज्ञानिक कारणों से गंगा का सम्मान हर धर्म के लोगों ने सदैव किया है। मुगल बादशाहों के यहां तो पीने के पानी के स्थान पर गंगाजल का प्रयोग होता रहा है। आज भी गंगा भारतीय संस्कृति की मां कही जाती है और इसका जल मरते समय प्राणी के मुंह म डालकर यह कामना की जाती है कि मां उसे मोक्ष प्रदान करेगी

गंगा के प्रदूषण को समाप्त करने में कछुआ, मछली, घडयाल ऐसे जल जीवों का योगदान रेखांकित करने योग्य है। इधर कछुओं को मारकर उनका व्यापारिक उपयोग किया जा रहा है इसलिये जल जीवों को विनष्ट करने की प्रथा समाप्त होनी चाहिए उनके अभाव में गंगा को प्रदूषण मुक्त नहीं किया जा सकता। हिन्दू धर्म में जिन शवों को जल में प्रवाहित करने का विधान रहा है उसके पीछे मानव शरीर को इन जंतुओं के लिये भोज्य पदार्थ के रूप में अर्पित कर उनकी क्षुधा तृप्ति से जीवन की आत्मा को शांति प्रदान करने की पुण्य मंशा हो रही है लेकिन इन जल जीवों की घटती जनसंख्या से जल प्रवाह किये गये शव भी गंगा को प्रदूषित करने में तो महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह कर ही रहे हैं इसलिये जल के बढाने का या उनके पर्याप्त मात्रा में होने का प्रयास किये बिना इस प्रकार का शव प्रवाह भी गंगा के पवित्र जल को प्रदूषित करता है। अक्सर हम देखते हैं कि कुछ लाशें गंगा में तैरती दिखाई पडती हैं उन्हें खाने वाले जीवों के अभाव के कारण लाश सडती रहती है और जल की जीवन प्रदायिनी शक्ति समाप्त हो जाती है। इस ओर भी बिना हमारे ध्यान दिये गंगा प्रदूषण मुक्त नहीं होगी।

हमें हर बात के लिये सरकार की ओर देखने की आदत छोड देनी चाहिये। सरकार भी हमारे भावनात्मक सहयोग के अभाव में कुछ नहीं कर सकती। हमें अपने स्तर से वो सारे कार्य बंद कर देने चाहिए जिससे मां का पवित्र जल प्रदूषित होता है। आइए संगठित होकर मन से एक ऐसा संकल्प लें जिससे हम
अपने को भारतवासी मां गंगा के पुत्र तथा उस संस्कृति के रक्षक कहला सकें जिसने प्राचीनकाल से अब
तक विश्व को रचनात्मक संदेश दिये हैं।

रविवार, 19 सितंबर 2010

चाल-खाल से बचाओ जंगल


सुरेश भाई
जलवायु परिवर्तन के दौर में यह स्थिति कभी बढ़ेगी तो कभी घट भी सकती है। अब अनियमित वर्षा को जल संरचनाए ही समेट पायेंगी। यह ध्यान देने योग्य है कि पहाड़ी राज्यों को ढालदार पहाड़ियों पर जल संरचनायें बनाकर धरती में जलधारण क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है। धरती के ऊपर पुराने समय में लोगों ने स्वयं के उपयोग एवं पशुओं के पेयजल के लिए चाल-खाल बनाये थे। इसमें से अब अधिकांश संरचनायें सीमेंटेड हो गयी है। फलस्वरूप इनका पानी सूख गया है। अब ऊपरी ढालदार पहाड़ियों पर उगने वाली चौड़ी पत्तियों के जंगल भी कम हो गये हैं।
चौड़ी पत्ती के जंगलों की कमी के कारण पानी का भण्डार भी प्रभावित हुआ है, लेकिन जंगल और पानी का आपस में एक ऐसा रिश्ता है, जो जमीन को टिकाकर रखते है। और जमीन भी जंगलों और पानी की संरचनाओं को धारण कर रखती है। जमीन के अन्दर नमी भी जंगल और पानी के कारण है। वह भी इसलिए संभव है कि जब ऊपरी ढालदार क्षेत्रों में जलग्रहण संरचनायें (चाल-खाल) मौजूद हो। वहां पर जंगल भी हो, जिसके कारण नीचे बसे गांवों के जलस्रोतों की जलराशि में वृद्धि होगी। इसी को ध्यान में रखते हुए हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने जल संरचनाओं को बनाने का बीड़ा उठाया है। मनरेगा में भी यही कोशिश की जानी चाहिये कि चालों का निर्माण जलराशि को बढ़ाने के उद्देश्य से किया जाये। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने जुगुल्डी, पंजियाला, चिणाखोली, धरपुर, चौंडियाट गांव, ल्वरखा, आदि कई गांवों में अब तक 400 तालाब बना दिये हैं। तालाबों का यह अभियान जारी रहेगा।

बचाओ धरती माता को


anirudh joshi

वैज्ञानिकों ने अतीत और वर्तमान के आँकड़े इकठ्ठे कर अपने कम्प्यूटर में दर्ज कर जब तीस साल के बाद की पृथ्‍वी के हालात जानना चाहे तो यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं थी बल्की कोई संवेदनशील हो तो उसके लिए मानसिक आघात होगा।

धरती का तापमान पूरे एक डिग्री बड़ चुका है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की गति बढ़ती जा रही है, समुद्र का जल स्तर 1.5 मिलीमीटर प्रतिवर्ष बढ़ रहा है और अमेजन के वर्षावन तेजी से खत्म होने के लिए तैयार है बस यह तीन स्थिति ही धरती को खतम करने के लिए काफी है। यह स्थिति क्यों बनी जरा इस पर सोचे।

समुद्र, जंगल और ग्लेशियर यह तीनों मिलकर धरती की 90 प्रतिशत गर्मी को तो रोक ही लेते है साथ ही धरती के वेदर और क्लाइमेट को मानव जीवन अनुसार बनाए रखने के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।

मनुष्‍य की कारस्तानी :

1.मनुष्य ने जहाँ नदियों को प्रदूषित कर सूखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी वहीं पृथ्‍वी को जगह-जगह से छेद कर अंदर का पानी भी उपर तेजी से खींच लिया है। लगातार वर्षावनों के कटते रहने से मानसून भी बिखर और बिगड़ गया है। ऑस्ट्रेलिया में लगी विश्‍व की सबमें बड़ी आग बुझने का नाम ही नहीं ले रही है तो दूसरी और से खबर आ रही है कि अफ्रीका के जंगल भी आग की भेंट चढ़ने लगे है।

2.तमाम तरह का औद्योगिक उत्पादन और उसका कचरा समेटे नहीं सिमटा रहा है तो कुछ को समुद्र में और कुछ को इस कदर जलाया जा रहा है, जिससे आसमान के नीले और सफेद रंग को भी अपने नीले और सफेद होने पर सोचना पड़ रहा है। अब एकदम साफ आसमान की कल्पना धूमिल होती जा रही है। दुनिया के हर बंदरगाह की हालत खराब हो चली है। समुद्र और आसमान को स्वच्छ रखना मुश्‍किल होता जा रहा है।

3.न्यूक्लियर टेस्ट तो बहुत बड़ी घटना है लेकिन छोटी-छोटी घटनाओं से ही धरती माता का दिल दहल जाता है। अमेरिका या ब्रिटेन जैसे विकसित राष्‍ट्रों में पुरानी बिल्डिंग या स्‍टेडियम को गिराने के लिए धरती के भीतर 50-50 टन डाइनामाइट लगाए जाते है। इससे धरती भीतर से टूटती जा रही है।

4.अरब के एक खरबपति द्वारा दुबई के समुद्र में विशालकाय टापू बनाया जा रहा है जहाँ ‍दुनिया की सबसे खुबसूरत बस्ती बसाई जायेगी। इस टापू को बनाने के लिए अरब के कई पहाड़ों को मौत की सजा दी जा रही है। उक्त टापू को बनाने के लिए उस समुद्री स्थान पर रोज पाँच सौ टन पत्थर पहुँचता है। इस तरह की उथल-पुथल वहीं नहीं चीन, जापान, रशिया, अमेरिका आदि जगह पर हो रही है जो धरती को धरती नहीं रहने देगी।

100 Ways to Save The Environment

In Your Home – Conserve Energy

  1. Clean or replace air filters on your air conditioning unit at least once a month.
  2. If you have central air conditioning, do not close vents in unused rooms.
  3. Lower the thermostat on your water heater to 120.
  4. Wrap your water heater in an insulated blanket.
  5. Turn down or shut off your water heater when you will be away for extended periods.
  6. Turn off unneeded lights even when leaving a room for a short time.
  7. Set your refrigerator temperature at 36 to 38 and your freezer at 0 to 5 .
  8. When using an oven, minimize door opening while it is in use; it reduces oven temperature by 25 to 30 every time you open the door.
  9. Clean the lint filter in your dryer after every load so that it uses less energy.
  10. Unplug seldom used appliances.
  11. Use a microwave when- ever you can instead of a conventional oven or stove.
  12. Wash clothes with warm or cold water instead of hot.
  13. Reverse your indoor ceiling fans for summer and winter operations as recommended.
  14. Turn off lights, computers and other appliances when not in use.
  15. Purchase appliances and office equipment with the Energy Star Label; old refridgerators, for example, use up to 50 more electricity than newer models.
  16. Only use electric appliances when you need them.
  17. Use compact fluorescent light bulbs to save money and energy.
  18. Keep your thermostat at 68 in winter and 78 in summer.
  19. Keep your thermostat higher in summer and lower in winter when you are away
  20. Insulate your home as best as you can.
  21. Install weather stripping around all doors and windows.
  22. Shut off electrical equipment in the evening when you leave work.
  23. Plant trees to shade your home.
  24. Shade outside air conditioning units by trees or other means.
  25. Replace old windows with energy efficient ones.
  26. Use cold water instead of warm or hot water when possible.
  27. Connect your outdoor lights to a timer.
  28. Buy green electricity - electricity produced by low - or even zero-pollution facilities (NC Greenpower for North Carolina - www.ncgreenpower.org). In your home-reduce toxicity.

In Your Home – Reduce Toxicity

  1. Eliminate mercury from your home by purchasing items without mercury, and dispose of items containing mercury at an appropriate drop-off facility when necessary (e.g. old thermometers).
  2. Learn about alternatives to household cleaning items that do not use hazardous chemicals.
  3. Buy the right amount of paint for the job.
  4. Review labels of household cleaners you use. Consider alternatives like baking soda, scouring pads, water or a little more elbow grease.
  5. When no good alternatives exist to a toxic item, find the least amount required for an effective, sanitary result.
  6. If you have an older home, have paint in your home tested for lead. If you have lead-based paint, cover it with wall paper or other material instead of sanding it or burning it off.
  7. Use traps instead of rat and mouse poisons and insect killers.
  8. Have your home tested for radon.
  9. Use cedar chips or aromatic herbs instead of mothballs.

    In Your Yard
  10. Avoid using leaf blowers and other dust-producing equipment.
  11. Use an electric lawn- mower instead of a gas-powered one.
  12. Leave grass clippings on the yard-they decompose and return nutrients to the soil.
  13. Use recycled wood chips as mulch to keep weeds down, retain moisture and prevent erosion.
  14. Use only the required amount of fertilizer.
  15. Minimize pesticide use.
  16. Create a wildlife habitat in your yard.
  17. Water grass early in the morning.
  18. Rent or borrow items like ladders, chain saws, party decorations and others that are seldom used.
  19. Take actions that use non hazardous components (e.g., to ward off pests, plant marigolds in a garden instead of using pesticide).
  20. Put leaves in a compost heap instead of burning them or throwing them away. Yard debris too large for your compost bin should be taken to a yard-debris recycler.

In Your Office

  1. Copy and print on both sides of paper.
  2. Reuse items like envelopes, folders and paper clips.
  3. Use mailer sheets for interoffice mail instead of an envelope.Use mailer sheets for interoffice mail instead of an envelope.
  4. Set up a bulletin board for memos instead of sending a copy to each employee.
  5. Use e-mail instead of paper correspondence.
  6. Use recycled paper.
  7. Use discarded paper for scrap paper.
  8. Encourage your school and/or company to print documents with soy-based inks, which are less toxic.
  9. Use a ceramic coffee mug instead of a disposable cup.

    Ways To Protect Our Air
  10. Ask your employer to consider flexible work schedules or telecommuting.
  11. Recycle printer cartridges.
  12. Shut off electrical equipment in the evening when you leave work.
  13. Report smoking vehicles to your local air agency.
  14. Don't use your wood stove or fireplace when air quality is poor.
  15. Avoid slow-burning, smoldering fires. They produce the largest amount of pollution.
  16. Burn seasoned wood - it burns cleaner than green wood.
  17. Use solar power for home and water heating.
  18. Use low-VOC or water-based paints, stains, finishes and paint strippers.
  19. Purchase radial tires and keep them properly inflated for your vehicle.
  20. Paint with brushes or rollers instead of using spray paints to minimize harmful emissions.
  21. Ignite charcoal barbecues with an electric probe or other alternative to lighter fluid.
  22. If you use a wood stove, use one sold after 1990. They are required to meet federal emissions standards and are more efficient and cleaner burning.
  23. Walk or ride your bike instead of driving, whenever possible.
  24. Join a carpool or vanpool to get to work.

Ways to Use Less Water

  1. Check and fix any water leaks.
  2. Install water-saving devices on your faucets and toilets.
  3. Don't wash dishes with the water running continuously.
  4. Wash and dry only full loads of laundry and dishes.
  5. Follow your community's water use restrictions or guidelines.
  6. Install a low-flow shower head.
  7. Replace old toilets with new ones that use a lot less water.
  8. Turn off washing machine's water supply to prevent leaks.

    Ways to Protect Our Water
  9. Revegetate or mulch disturbed soil as soon as possible.
  10. Never dump anything down a storm drain.
  11. Have your septic tank pumped and system inspected regularly.
  12. Check your car for oil or other leaks, and recycle motor oil.
  13. Take your car to a car wash instead of washing it in the driveway.
  14. Learn about your watershed.


    Create Less Trash
  15. Buy items in bulk from loose bins when possible to reduce the packaging wasted.
  16. Avoid products with several layers of packaging when only one is sufficient. About 33 of what we throw away is packaging.
  17. Buy products that you can reuse.
  18. Maintain and repair durable products instead of buying new ones.
  19. Check reports for products that are easily repaired and have low breakdown rates.
  20. Reuse items like bags and containers when possible.
  21. Use cloth napkins instead of paper ones.
  22. Use reusable plates and utensils instead of disposable ones.
  23. Use reusable containers to store food instead of aluminum foil and cling wrap.
  24. Shop with a canvas bag instead of using paper and plastic bags.
  25. Buy rechargeable batteries for devices used frequently.
  26. Reuse packaging cartons and shipping materials. Old newspapers make great packaging material.
  27. Compost your vegetable scraps.
  28. Buy used furniture - there is a surplus of it, and it is much cheaper than new furniture.