अनिल अग्रवाल
"पर्यावरण शिक्षा को केवल पेड़-पौधों, जानवरों और केवल संरक्षण तक ही सीमित नही किया जा सकता है। इसका उद्देश्य होना चाहिए स्थान और समय के पैमाने पर बच्चे, जीवित और अजीवित वस्तुओं के बीच एक रिश्ता कायम कर पाएं।
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसे वैदिक सूत्रों में भी संतुलन और साम्य पर जोर दिया गया है। साथ ही अनुशासन और सहचर जैसे महान गुणों को भी बताया गया है। वेदों में प्रत्येक व्यक्ति की अपने दैनिक जीवन के प्रति संवेदना के कई उदाहरण मिलते हैं। जिसमें एक दूसरे पर निर्भरता के धर्म को स्वीकार किया गया है। भले ही वस्तु जीवित हो या निर्जीव, सभी जीवों, वस्तुओं और धरती माता के प्रति आदर इसी का परिणाम हैं।हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण सभी को अपने में समेटने वाला शब्द है। इसमें सभी प्रकार की प्राकृतिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक एवं आर्थिक क्रियाओं को शामिल किया जाता है। यह एक साझा पटल पर जीवित और निर्जीव पदार्थों के बीच का संबंध है जिसमें काल के सभी चक्र भूत, भविष्य और वर्तमान समाहित हो जाते हैं
" स्कूली बच्चों के लिए तैयार किया गया पर्यावरण साहित्य कुछ अपवादों को छोड़कर करीब-करीब प्रकृति की शिक्षा ही है। छोटे-छोटे बच्चों को प्राकृतिक सुदंरता और आश्चर्यों से वाकिफ कराना अति महत्वपूर्ण है। परन्तु जैसे-जैसे बड़े होते जाते है उनके लिए ये समझना अतिआवश्यक है कि किस तरह से मानव और मानव समुदाय जीवित रहने के लिए वातावरण के साथ अंतःक्रिया करते हैं। यह अंतःक्रिया किस तरह से समाज की संस्कृति का अंग बन जाती है और क्यों पर्यावरण के साथ हमारा ये संबंध इतना महत्वपूर्ण है। "
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें