रविवार, 2 जनवरी 2011

पर्यावरण एवं जल प्रदूषण


अनीता अग्रवाल
“पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर पहेली है एवं इसके साथ हमारे जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है, वैज्ञानिकों ने यदि समय रहते इसके परिहार के लिए आवश्यक कदम नहीं उठाए तो आने वाले समय में मनु-पुत्र सदा के लिए काले के गाल में समा जाएंगे।” प्रसिद्ध प्रकृतिविद् श्री सुन्दर लाल बहुगुणा का यह कथन आज की गंभीर रूप धारण करती हुई पर्यावरण प्रदूषण रूपी समस्या के सम्बन्ध में नितांत सत्य है।
आज सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से चिन्तित है एवं आज ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता जब पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या पर चर्चा नहीं होती है। अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अनुसार, “प्रदूषण, जल, वायु या भूमि के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों के होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन है जिससे मनुष्य प्रक्रियाओं या सांस्कृतिक तत्वों तथा प्राकृतिक संसाधनों को हानि हो या हानि होने की संभावना हो।”

पर्यावरण के मुख्य आधार वायु, भूमि, वनस्पति जहां प्रदूषित होकर मानव-जीवन के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं, वहीं जल-प्रदूषण मानव अस्तित्व के लिए ही खतरा बन गया है। महाकवि कालिदास ने जहाँ अभिज्ञान शाकुन्तलम् व मेघदूत जैसी विश्व-प्रसिद्ध रचनाओं में मन पर पर्यावरण का प्रभाव दर्शाया है, वहीं लेमार्क एवं डार्विन जैसे वैज्ञानिकों ने पर्यावरण को जीवों के विकास में महत्वपूर्ण कारक माना है। चाणक्य जैसा नीतिज्ञ भी साम्राज्य की स्थिरता पर्यावरण की स्वच्छन्दता पर निर्भर मानता है। इन सबके बावजूद भी स्वार्थी मानव ने अपने तुच्छ उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विश्व के सम्मुख एक विकट समस्या जल-प्रदूषण के रूप में उत्पन्न कर दी।

जल का महत्व


मानव शरीर का दो-तिहाई भाग जल से ही बना है। हमारे रक्त का 40 प्रतिशत भाग जल होने से ही परिसंचरण द्वारा पोषक अंगों तक पहुँचाने तथा उपापचय के फलस्वरूप उत्पन्न विसर्जन योग्य पदार्थों के निष्कासन में सहायक सिद्ध होता है। जल की इस महत्ता को समझते हुए ही 500 ईस्वी पूर्व पिण्डरोज नामक ग्रीक वैज्ञानिक ने जल को सभी वस्तुओं में सर्वोत्तम कहा।

जैसा लिखा भी गया है-

“जल ही है रस रूप में, जड़ चेतन सब देह,
रोम-रोम में यह रमा, मूल सागर की नेह।”

जल प्रदूषण की समस्या


मानव का अस्तित्व जल से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है फिर भी मानव अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए जल को विषाक्त करता जा रहा है। यही नहीं, विश्व के कुल जल का मात्र 0.6 प्रतिशत भाग ही पीने योग्य है क्योंकि हमारी पृथ्वी के कुल जल का 97 प्रतिशत भाग समुद्रों में पाया जाता है जो लवणीय व खारा है अतः उपयोग के अनुकूल नहीं है। शेष 3 प्रतिशत का अधिकांश भाग भूमिगत एवं वाष्प के रूप में है एवं केवल 0.6 प्रतिशत जल ही जल-स्रोतों के रूप में मानव को उपलब्ध है, जिसका वह सुगमतापूर्वक प्रयोग कर सकता है। जल प्रदूषण में मानव ने सर्वाधिक दुरूपयोग समुद्र व नदियों का किया है। दोनों की विशालता के कारण इन पर “सोल्यूशन टू पोल्यूशन इस डाइल्यूशन” की अव्यावहारिक उक्ति का सहारा लेकर इनको कूड़े-कचरे को ठिकाने लगाने का स्थान बना लिया। जल प्रदूषण के मुख्य घटकों में औद्योगिक-रासायनिक व विषैले पदार्ष, तैलीय प्रदूषण, थर्मल प्रदूषण, रेडियो एक्टिव, कीटनाशकों का अविवेकपूर्ण प्रयोग, कूड़ा-कचरा आदि प्रमुख हैं। जल प्रदूषण के फलस्वरूप आज पानी में सोडियम, लोहे, मैग्निशियम, क्रोमेट, अमोनिया, सायनाइड, फिनाल, नैप्थैलिन, पारे एवं अनावश्यक फ्लोराइड की मात्रा निरंतर बढ़ती जा रही है एवं आक्सीजन की मात्रा में निरंतर कमी होती जा रही है।

मानव ने जैविक मल से छुटकारा पाने का सबसे सरल व सुविधाजनक तरीका इसे नदियों व समुद्रों में छोड़ा जाना खोजा, जो एक अत्यंत घातक कदम है। सामान्यतः एक वर्ष में 10 लाख व्यक्तियों पर 5 लाख टन सीवेज उत्पन्न होता है जिसका अधिकांश भाग समुद्र व नदियों में पहुंचता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 1 लाख से ज्यादा आबादी वाले 142 शहरों में से केवल 8 शहर हैं जिनमें सीवेज को ठिकाने लगाने की पूर्ण व्यवस्था है, 62 ऐसे शहर है जहाँ थोड़ी-बहुत व्यवस्था है एवं 72 ऐसे शहर हैं जहाँ इसकी कोई व्यवस्था नहीं है। जल में मानव मल-मूत्र आने का आशय है डिकम्पोजिटर बैक्टीरिया के लिए अतिरिक्त भोजन का आगमन, जो पानी की आक्सीजन का बहुत बड़ा भाग प्रयोग में लेते हैं। जिससे जलीय जंतुओं व पादपों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।

औद्योगिकरण के कारण कल-कारखानों के जहरीले रासायनिक व्यर्थ के पदार्थों ने भी नदियों की जीवनदायिनी शक्ति को प्रायः समाप्त कर दिया है। आज भारत की लगभग 70 प्रतिशत नदियां पर्यावरण के दृष्टिकोण के संकट के घेरे में हैं। इनमें भारत की प्रमुख नदियां गंगा, यमुना, दामोदर, सोन, कावेरी, कृष्णा, नर्मदा, साही आदि शामिल है। आज भारतीयों की मुख्य धार्मिक नदी गंगा का 23 प्रतिशत भाग प्रदूषित हो चुका है। सन् 1984 में यमुना नदी में मात्र दिल्ली शहर से प्रतिदिन 3,20,000 किली. मलमूत्र व गंदा पानी मिलता था। वाराणसी के विश्वप्रसिद्ध दशाश्वमेघ घाट से बहने वाली गंगा का जल-जलीय प्रदूषण के कारण अपेय व हानिकारक हो गया है। दामोदर नदी में 40 लाख गैलन विषैला पानी कल-कारखानों द्वारा छोड़ा जाता है। मद्रास शहर से लगभग 2 करोड़ गैलन गंदगी बहकर नदियों को अशुद्ध करती है। श्रीनगर का 51000 किली. गंदा पानी सीधा झेलम में मिलता है। जल में प्रवाहित की जाने वाली इस गंदगी के कारण जहां सन् 1940 में एक लीटर जल में 2.5 घन सेमी. आक्सीजन पाई जाती थी वह घटकर अब मात्र 0.1 घन सेमी. रह गई है। यही नहीं, भारत के 2600 शहरी क्षेत्रों में से केवल 2000 क्षेत्रों में एवं 5,76,000 ग्रामीण क्षेत्रों में मात्र 64,000 क्षेत्रों में सामान्य से कुछ जल पीने हेतु उपलब्ध है।

जल प्रदूषण का दूष्प्रभाव जलीय पादपों व जीव जंतुओं पर भी तीव्र गती से दृष्टिगत होने लगा है एवं कई प्रजातियां लुप्तप्रायः हो गई हैं. जल प्रदूषण से विश्व भर में समुद्र से प्राप्त की जाने वाली 10 करोड़ टन मछलियों का अस्तित्व खतरे में होता जा रहा है। एक अनुसान के अनुसार मात्र पिछले 20 वर्षों में समुद्री जीवों की संख्या में 40 प्रतिशत की कमी आई है।

समुद्री जल प्रदूषण का एक मुख्य कारण तैलीय प्रदूषण भी है। विश्व में लगभग डेढ़ टन तेल का यातायात प्रति वर्ष होता है। जिसके कारण जल में तैलीय प्रदूषण फैलता है। तैलीय प्रदूषण के परिणामस्वरूप जीवों की तीव्रगति से मृत्यु होती है। क्योंकि तेल हल्का होने के कारण जल पर फैल जाता है। जिससे जंतु जल व वायु के बीच आदान-प्रदान नहीं कर पाता है व नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार कच्चा तेल काला होने से सूर्य की रोशनी पानी तक नहीं पहुंच पाती है, फलतः शैवाल व अन्य पौधे प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं कर पाते हैं। जल में तैलीय प्रदूषण कितना फैल गया है इसके लिए अमेरिका की काहोगा नदी का उदाहरण दिया जा सकता है जिसमें एक बार अत्यधिक प्रदूषण के कारण आग लग गई थी, इसी कारण उसे ज्वलनशील नदी की संज्ञा दी जाने लगी। भारतीय संदर्भ में मुंगेर के पास गंगा में तेल शोधक कारखाने के कारण आग लग गई थी जिससे बहुत बड़ा नुकसान हुआ था।

आज जल प्रदूषण के दुष्परिणामों की विश्व झलक देखें तो जापान का उदाहरण सर्वोत्तम रहेगा जहां के टोकियो के शहर के आस-पास प्रदूषण इतना अधिक हो गया कि उस जल के फोटोग्राफ विकसित किया जा सकता है। वहां के योकाईची नगर में काफी बड़ी संख्या में लोग श्वांस रोग से पीड़ित हो चुके हैं। जीत्सू नदी के किनारे होंमू द्वीप के निवासियों में एक नई बीमारी उत्पन्न हो गई है जिसमें लोगों की अस्थियां इतनी भंगुर हो गई हैं कि थोड़े-से छू देने से ही वे टूट जाती हैं।

आज धरती के स्वर्ग कश्मीर की डल झील, नैनीताल की नैनीझील, माउण्ट आबू की नक्की झील के सौन्दर्य में प्रदूषण के कारण निरन्तर गिरावट आ रही है। यदि डल झील में प्रदूषण की यही गति रही तो आने वाले 5 वर्षों में यह नौका विहार एवं मछली पकड़ने के अनुकूल भी नहीं रह पाएगी।

निष्कर्ष


जल प्रदूषण पर नियंत्रण करने हेतु घरों से निकलने वाले वाहित मल व मलिन जल को संयंत्रों में पूर्ण उपचार करके ही नदी या समुद्र में छोड़ना, जलाशयों के आस-पास गंदगी कूड़े-करकट डालने पर रोक, खेती में विषैले रासायनिक पदार्थों के अनावश्यक प्रयोग पर रोक, रासायनिक उद्योगों के अवशिष्ट जल व पदार्थों का जल स्रोतों में डालने पर रोक लगानी होगी।

यदि विश्व में जल प्रदूषण की यही दर कायम रही तो आने वाले युग में पीने का पानी व खेतों में दिया जाने वाला पानी विषाक्त एवं प्रदूषित होगा। फलतः उत्पादन कम होगा, भुखमरी, बीमारियां, महामारियां फैलेंगी तथा जिन समुद्रों व नदियों से अमृत एवं रत्न निकलते थे वहां से विष निकलेगा।

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